: १२ : आत्मधर्म : फागण : २५०१
स्वरूप आत्माने ते जाणतो नथी. आत्मा तो सदा ज्ञान–आनंदस्वरूप ज छे–एम
पोताना अंर्तवेदनथी ज जणाय छे.
अतीन्द्रियज्ञानवडे चैतन्यस्वरूप आत्माने तो जाण्यो नहि, ने ईन्द्रियज्ञानवडे
मात्र अचेतन शरीरने ज जाण्युं, त्यां अज्ञानीने ‘शरीर ज हुं छुं’ एवी देहबुद्धि थई
गई; अने जेम पोतामां शरीरने आत्मा माने छे तेम बीजाना अचेतन शरीरने देखीने
तेने पण ते बीजाना आत्मा ज माने छे. ए रीते मूढ जीव पोतामां ने परमां अचेतन
शरीरने ज आत्मा माने छे; देहथी भिन्न आत्माने ते देखतो नथी, ओळखतो नथी.
तेने शांति क््यांथी मळे? माटे जो साची शांति जोईती होय तो आत्माने आत्मस्वरूपे
ओळखो.
ज्ञानीनो आत्मा तो ज्ञाता–द्रष्टा छे, देहथी पार छे ने रागनो पण कर्ता ते नथी,
ते तो आनंद अने ज्ञानरूप परिणमे छे–एम ओळखे तो ज ज्ञानीनी साची ओळखाण
थाय; पण एने तो अज्ञानी ओळखतो नथी; ते तो शरीरनी चेष्टाने तथा रागने देखे
छे. पोताना आत्माने नहि देखनारो अंध बीजाना आत्माने क््यांथी देखी शके?
देहादि संयोगथी भिन्न मारुं चैतन्यतत्त्व छे–एम जो ओळखे तो बधा
संयोगमांथी राग–द्वेषनो अभिप्राय छूटी जाय, ने चैतन्यनी अपूर्व शांति थई जाय.
अरे भाई! भ्रमथी देहने ज आत्मा मानीने तुं अत्यार सुधी अनंत जन्म–
मरणमां रखडयो, हवे देहथी भिन्न चैतन्यस्वरूप आत्माने जाणीने ए भ्रमबुद्धि छोड...
बहिरात्मदशा छोड...ने अंतरात्मा था.
देहने आत्मा माननारो जीव भ्रांतिथी केवो दुःखी थाय छे तेनुं द्रष्टांत–
एक माणस निद्रामां सूतो हतो; तेने स्वप्न आव्युं के ‘हुं मरी गयो छुं’. आ
रीते पोतानुं मरण देखीने ते जीव घणो दुःखी ने भयभीत थयो.
कोई सज्जने तेने जगाडयो; जागतांवेंत तेणे जोयुं के अरे, हुं तो जीवतो ज आ
रह्यो. हुं कांई मरी नथी गयो! स्वप्नमां में मने मरेलो मान्यो तेथी हुं बहु दुःखी थयो,
पण खरेखर हुं जीवतो छुं. आम पोताने जीवतो जाणीने ते आनंदित थयो ने मृत्यु
संबंधी तेनुं दुःख मटी गयुं. अरे, जो ते मरी गयो होत तो ‘हुं मरी गयो’ एम जाण्युं
कोणे? जाणनारो तो जीवतो ज छे.
तेम मोहनिद्रामां सूतेला जीव, देहादिना संयोग–वियोगथी स्वप्ननी माफक एम
माने छे के हुं मर्यो, हुं जन्म्यो; हुं मनुष्य थई गयो, हुं तिर्यंच थई गयो. ते मान्यताने