जगाडयो, जागतां ज तेने भान थयुं के अरे, हुं तो अविनाशी चेतन छुं ने आ शरीर
जड छे, ते कांई हुं नथी. में भ्रमथी मने शरीररूप मान्यो, पण हुं कांई चैतन्य मटीने
जड थई गयो नथी. शरीरना संयोग–वियोगे मारुं जन्म–मरण नथी. आवुं भान थतां
ज तेनुं दुःख दूर थयुं ने ते आनंदित थयो के वाह! जन्म–मरण मारामां नथी, हुं तो
सदा जीवंत चैतन्यमय छुं. हुं मनुष्य के तिर्यंच थई गयो नथी, हुं तो शरीरथी जुदो
चैतन्य ज रह्यो छुं. जो हुं शरीरथी जुदो न होउं तो शरीर छूटतां हुं केम जीवी शकुं? हुं
तो जाणनार स्वरूपे सदाय जीवंत छुं.
जीव बाह्य संयोगोमां–पुण्यमां–रागमां जे सुख माने छे ते तो स्वप्नाना सुख जेवुं छे.
ज्यां भेदज्ञान करीने जाग्यो त्यां भान थयुं के अरे, बाह्यमां–रागमां क््यांय मारुं सुख
नथी; तेमां सुख मान्युं ते तो भ्रम हतो, साचुं सुख मारा आत्मामां छे–आवा चैतन्यनुं
भान करे तो मिथ्या मान्यतारूपी रोग टळे, ने सम्यग्दर्शनादि निरोगता प्रगटे,–ते ज
सुख छे.
कठणपत्थरा पर दोरीना वारंवार घसाराथी घसाई–घसाईने तेमां लिसोटा थई जाय छे,
तेम देहथी भिन्न चिदानंदतत्त्वनी वारंवार भावनाना अभ्यासथी अनादि अविद्याना
संस्कारनो नाश थईने भेदज्ञान थाय छे, ने अपूर्व ज्ञानसंस्कार प्रगटे छे.
छे,–तेने मोक्ष थतां शरीर छूटी जाय छे,–फरीने शरमजनक देहनो संयोग थतो नथी.
अशरीरी आत्माने चूकीने शरीरने जेणे पोतानुं मान्युं ते ज चार गतिमां परिभ्रमण
करे छे. पण अशरीरी चैतन्यस्वभावने ओळखीने तेने जे आराधे छे ते अशरीरी सिद्ध
थई जाय छे. योगीन्दुस्वामी कहे छे के–