: १४ : आत्मधर्म : फागण : २५०१
ध्यानवडे अभ्यंतरे देखे जे अशरीर,
शरमजनक जन्मो टळे, पीए न जननी–क्षीर.
ज्ञान–आनंदस्वरूप आत्मा छे, ते शरीरथी जुदो ज्ञाताद्रष्टा छे; आत्मा शरीरनो
जाणनार छे पण पोते शरीर नथी. अरे जीव! आ शरीर तुं नथी, तुं तो चैतन्यस्वरूपी
अरूपी छे; देहथी भिन्न तारा स्वरूपने जाण तो तने शांति थशे.
आ शरीरने तो ‘भवमूर्ति’ कीधी छे. आत्मा चिदानंदस्वरूप छे ते आनंदनी
मूर्ति छे, ने आ देह तो भवनी मूर्ति छे; तेनी प्रीतिथी तो भव थशे, आनंद नहि थाय.
अने आत्माने देहथी भिन्न ओळखतां आनंदनी प्राप्ति सहित भवनो अंत थशे.–
कायानी विसारी माया.....स्वरूपे समाया एवा.....
निर्ग्रंथनो पंथ भव–अंतनो उपाय छे.....
आवो मनुष्य–अवतार पामवो अनंतकाळे दुर्लभ छे. आवो मनुष्य–अवतार
अने तेमांय उत्तम सत्संग पामीने अरे जीव! तुं विचार तो कर के “हुं कोण छुं? ”
क््यांथी थयो? ने मारुं वास्तविक स्वरूप शुं छे? कोनी साथे मारे संबंध छे? ”
–आ देह तो हमणां थयो; खोराक–पाणीथी ते ढींगलुं रचाणुं; हुं ते नथी, हुं तो
आत्मा छुं. मारो आत्मा कांई नवो थयो नथी; शरीरनो संयोग नवो थयो छे. आ
आत्मा पहेलांं (पूर्वभवे) बीजा शरीरना संयोगमां हतो, त्यांथी ते शरीरने छोडीने
अहीं आव्यो,–ए रीते आत्मा तो त्रिकाळ टकनार तत्त्व छे, ने देह तो क्षणिक संयोगी
छे.
मारुं स्वरूप तो ज्ञान–आनंदस्वरूप छे, शरीर–ईन्द्रियो ते मारुं स्वरूप नथी, ते
तो जडनुं रूप छे; ते शरीरादि साथे मारे वास्तविक कांई संबंध नथी, तेनी साथेनो
संबंध तोडीने ज्ञानानंदस्वरूप साथे ज मारे संबंध जोडवा जेवो छे. मारा चिदानंदतत्त्व
सिवाय जगतना कोई पदार्थो साथे मारे एकतानो संबंध कदी पण नथी.–आम
सर्वप्रकारे विचार करीने, अंतर्मुख चित्तथी ज्ञानानंदस्वरूप पोताना आत्मानो निर्णय
करवो ने देहादिकने पोताथी बाह्य–भिन्न जाणवा, ते सिद्धांतनो सार छे.–आ रीते
आत्माने ओळखवो ते ज परमसुखनो उपाय छे.