Atmadharma magazine - Ank 377
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : २५०१ आत्मधर्म : १५ :
देह–अंतके समयमें
एक मुमुक्षु जीव, जीवन दरमियान केवी वीतरागीभावना
भावतो होय छे! धर्मनुं रटण, भव–तन–भोगथी विरक्ति, शत्रु–
मित्र प्रत्ये समभाव करीने, कषायोना शल्यथी दूरता, अने अखंड
सम्यक्त्वपालन सहितनी समाधि–तेनी भावनारूप आ वैराग्यभजन
सौने गमशे. जीवन हो के मरण हो, मुमुक्षुजीव क््यारेय
जिनभगवानने के आत्मस्वरूपने भूलतो नथी.
दिनरात मेरे स्वामी...मैं भावना ये भावुं;
देह–अंत के समयमें...तुमको न भूल जाउं.. दिनरात०
शत्रु अगर को होवे संतुष्ट उनको करदुं,
समताका भाव धरके सबसे क्षमा कराउं... दिनरात०
त्यागुं आहार पानी औषध विचार अवसर,
तुटे नियम न कोई द्रढता हृदयमें धारुं... दिनरात०
जागे नहि कषायें नहि वेदना सतावे;
तुमसे ही लो लगी हो, दुर्ध्यानको हटाउं... दिनरात०
आत्मस्वरूपका चिंतन आराधना विचारुं;
अरहंत–सिद्ध–साधु रटना यही लगाउं... दिनरात०
धर्मातमा निकट हो चरचा धरम सुनावे,
वो सावधान रकखें गाफल न होने देवे... दिनरात०
जीनेकी हो न वांछा मरनेकी हो न ख्वाहिश
परिवार मित्र जनसे में मोहको भगाउं... दिनरात०
भोग्या जो भोग पहले उनका न होवे सुमरन
मैं राजसंपदा या पद ईन्द्रका न चाहुं... दिनरात०
सम्यक्त्व का हो पालन हो अंतमें समाधि,
‘शिवराम’ प्रार्थना यह जीवन सफल बनाउं... दिनरात०