Atmadharma magazine - Ank 377
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म : फागण : २५०१
चेतन अने काया
(श्रीगुरु न्याय करीने तेनो फेंसलो आपे छे.)

चेतनमय आत्मा, अने पुद्गलमय शरीर,–ए बंनेनुं स्वरूप एकबीजाथी तद्न
जुदुं ज छे. अनादि कर्मसंयोगे आत्मा अने शरीर एकक्षेत्रे भेगा रह्या होवा छतां
बंनेनुं परिणमन स्वतंत्र जुदेजुदुं छे. अनादिथी अज्ञानी एक शरीरने छोडीने बीजी
गतिमां जाय छे पण शरीर कांई तेनी साथे नथी जतुं.–आवी भिन्नताने नहि जाणनारो
एक अज्ञानी, शरीरने पोतानुं मानीने मरतां पण तेने साथे राखवा मांगे छे ने
शरीरने विनवे छे के हे शरीर! तुं मारी साथे चाल!
*
पण काया ना पाडे छे के हुं बळी जईश, पण तारी साथे नहि आवुं.
* आत्मा कहे छे के हे काया! में जीवनभर तारुं पोषण कर्युं, तारा खातर अनेक
पापो कर्यां, माटे हवे मारी साथे जरूर चाल.
* शरीर कहे छे के ना; मारो तो एवो ज स्वभाव छे के जीवनी साथे न जवुं; जुदा
ज रहेवुं.
–आम जीव अने शरीर बंने वादविवाद करतां करतां वादी अने प्रतिवादीरूपे
श्रीगुरु पासे आव्या अने सामसामे पोतपोतानी दलीलो रजु करीने न्याय मांग्यो.
त्यारे श्रीगुरुए बंने पक्षनी दलीलो सांभळीने सत्य न्याय आप्यो.–शुं न्याय आप्यो?
ते आप आ काव्यमां वांचशो.
चेतन अने कायाना वादविवादरूपे आ रोचक अने बोधप्रेरक पदरचना कवि
श्री छोटेलालजी जैन द्वारा रचित छे. आ रचना बाळको नाटकरूपे पण भजवी शके
तेवी छे, तेना संवादो आकर्षक छे. सोलापुरना कंकुबाई श्राविकाश्रमनी बाळाओए
आ संवाद नाटकरूपे भजव्यो हतो, अमे मराठी–‘
सन्मति’ पत्रिकामांथी ते साभार
अहीं आपीए छीए. बाळको, तमे पण आ संवाद नाटकरूपे भजवशो तो सौने
आनंद थशे. (–सं.)