Atmadharma magazine - Ank 377
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 20 of 37

background image
: फागण : २५०१ आत्मधर्म : १७ :
प्रस्तावना
काया चेतनमें हुआ, एक दिन तकरार।
श्री मुनिवरके निकट जा, चेतन करी पुकार।।
()
चेतन – हे नाथ! काया यों कहती, नहीं साथ तुम्हारे चलती हूँ
तुम्हारा मेरा साथ यहीं तक, अब मे यहींपर रहती हूँ।
कैसे छोडू मैं इसको, हा! बडे प्यारसे पाला था
इसके खातिर स्वामी मैंने, घरघर डाका डाला था।।
इस प्रकार ये झगड रही है, मूरख नादानीको।
हाय! कहो अब कैसे छोडू, अपनी प्रीत पुरानीको?
()
गुरुदेव–चेतनकी करुणा भरी, श्रीगुरु सुनी पुकार
कायासे पूछत गुरु, यों मृदु वचन उचार।
ये काया! क्या बात है, चेतनके प्रतिकूल,
तुम भी अपनी बातको, बतलाओ अनुकूल।।
()
काया–बोली काया हे गुरु! सुनो हमारी बात।
ये चेतन तो मूरख है, करै अनाडी बात।।
‘चलो हमारे साथ तुम, ’ ये चेतन यों कहता है।
मेरे कुलकी रीत अनादि, यह सब मेटन चाहता है।।
इन्द्र नरेन्द्र धरणेन्द्रके संग, नहीं गयी सब जानत है।
ये चेतन मूरख अभिमानी, मुझसे प्रीति ठानत है।।
एक दिवस, ज्यारे जीवने परलोकमां जवानी तैयारी थई त्यारे, काया अने चेतन वच्चे तकरार
थई; त्यारे श्री मुनिराजनी पासे आवीने चेतने पोकार कर्यो: हे नाथ! अमे (जीव अने काया)
आखो भव भेगा रह्या, हवे हुं परलोकमां जउं छुं त्यारे आ काया एम कहे छे के हुं तारी साथे नहीं
आवुं! मारो ने तारो सथवारो अहीं सुधी ज हतो, हवे हुं तो अहीं ज रहीश. तो हे नाथ! घणा
प्रेमथी जेनुं में जीवनभर पालन कर्युं तेने हवे हुं केम छोडुं? एने खातर तो में अनेक घरमां चोरी
करी; हवे ते मूरख–काया नादान थईने मारी साथे झगडी रही छे. हाय! आ कायानी पुराणी प्रीतने
हवे हुं केम छोडुं? (१–२)
श्रीगुरुए चेतननी करुणाभरी वात सांभळीने पछी मधुर वचनथी कायाने पूछयुं: हे
काया! तारी विरुद्ध चेतननी आ शी वात छे? तुं पण तारे जे कहेवुं होय ते कहे.
कायाए कह्युं: हे गुरु! मारी वात सांभळो! आ चेतन तो मूरख छे, ते पागल जेवी
अनाडी वात करे छे के ‘तुं मारी साथे चाल! ’–आम कहीने ते मारा कुळनी अनादिनी रीतने
तोडवा मांगे छे. जगत आखुं जाणे छे के हुं ईन्द्र नरेन्द्र के धरणेन्द्रनी साथे पण कदी गई नथी. छतां
आ अभिमानी चेतन मूरख थईने