Atmadharma magazine - Ank 377
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: १८ : आत्मधर्म : फागण : २५०१
छोड दियो संग मैंने स्वामी, तीर्थंकर सम ज्ञानीको।
हाय! कहो अब कैसे छोडूं, अपनी रीत पुरानीको?
()
गुरुदेव–कहो चेतनजी! इस दलीलपर आपका कया कहना है?
कायामें नहीं चेतनता फिर उसे तुम्हें क्या करना है?
चेतन–इस कायाको बडे प्यारसे, लड्डू खूब खिलाये थे।
चिलगूजा, अकरोड और अंगुरादिक मंगवाये थे।
पिस्ता किसमिस दाख छुहारे, अरु इलायची लाया था।
स्वर्णभस्म तथा मकरध्वज, इसको खूब खिलाया था।।
फिर भी ये यों कहती है, नाहक खींचातानीको।।
हाय! कहो अब कैसे छोडूँ, अपनी प्रीत पुरानीको?।।
()
काया–ये चेतन झूठा है स्वामी! झूठी बातें बकता है।
मनमानी करता रहता खुद, बदनामी मेरी करता है।
मैनें कब चहे लड्डू अरु मोहनभोग मसालोंको?
स्वर्णभस्म या मकरध्वज ये, चाहिए इन मतवालोंको।।
मैं चेतनके चक्करमें पड, सह रही हूँ बदनामीको।
हाय! कहो अब कैसे छोडूँ, अपनी रीत पुरानीको?।।
()
चेतन–कोट बूट पतलून पहनकर, इसको खूब सजाया था।
इतने पर भी न हुअी राजी, तब शिरपर टोप लगाया था।
नेकटाई भी गले बांधकर, इसकी शान बढाई थी।
गांधी टोपी भी शिरपर रख, इज्जत खूब बढाई थी।।
किन्तु आज मेरी मेहनत पर, फेर रही है पानीको।
हाय! कहो अब कैसे छोडूँ, अपनी प्रीत पुरानीको?।।
()
मारा उपर प्रीति करे छे. हे स्वामी! तीर्थंकर जेवा ज्ञानीनो संग पण में छोडी दीधो, तो
पछी हुं मारी आ पुराणी रीतने हवे केम छोडूं? (३–४)
श्रीगुरु कायानी वात सांभळीने कहे छे: हे चेतनजी! बोलो, कायानी आ दलील सामे
तमारे शुं कहेवानुं छे? कायामां चेतनता तो छे नहि, पछी तमारे तेने शुं करवी छे?
चेतन कहे छे–आ कायाने में घणा प्रेमथी बहु लाडवा खवडाव्या, तेने माटे रसगुल्ला,
अखरोट, अंगूर वगेरे मंगाव्या, पिस्ता–किसमिस–धराख–खारेक–एलची लाव्यो, तेमज सुवर्णभस्म
मकरध्वज वगेरे खूब खवडावीने तेने में पुष्ट करी, छतांय अत्यारे ते मारी साथे आववानी ना कहीने
नकामी खेंचताण करे छे.–अरेरे! काया साथेनी मारी जुगजुनी प्रीतने हुं केम छोडूं? (प)
काया कहे छे के–हे स्वामी! आ चेतन जूठो छे, ते खोटी वातो बके छे, ते मनमानी पोतानी
करे छे ने बदनामी मारी करे छे. ए लाडवा–मोहनभोग–मसाला के सुवर्णभस्म अने मकरध्वज ए
बधानी चाहना में तो कदी करी नथी, ए बधानी चाहना तो आ मतवाला चेतने ज करी हती. चाहना
एणे करी ने नाम मारुं ल्ये छे! आ रीते चेतन साथे चक्करमां पडीने हुं बदनामी सहन करी रही छुं.
–पण अरे! परभवमां साथे न जवानी मारी अनादिनी रीतने हुं केम छोडुं? (६)