: फागण : २५०१ आत्मधर्म : १९ :
गुरुदेव–‘री काया! चेतन जो कह रहा है
इसका क्या कोई समाधान है?
काया–सुनिये गुरुदेव! यह तो केवल अज्ञानभरा बकवास ही है।
मेरा स्वभाव जड है स्वामी! ये चेतन अभिमानी है।
यह अपने अभिमान–विवश हो, करता खींचातानी है।
स्वयं कोट पतलून पहन, बहुरूपी वेष बनाता है।
अपनी मनमानी करता, अरु मुझको नाच नचाता है।
देख देख पछताती हूँ मैं चेतन की नादानी को।
हाय! कहो अब कैसे छोडूँ, अपनी रीत पुरानी को?।। (८)
गुरुदेव–‘कहो चेतनजी’ ! इस पर आपका क्या कहना है’
चेतन–दूध मलाई हलुआ रबडी, मोहन–भोग खिलाए थे।
और इत्र फल–फूलोंको, इसने ही नित्य मंगवाये थे।
ऊँचे ऊँचे तेल लब्हन्डर, मधुर मधुर खुश्बूवाले।
इसने ही पीये थे स्वामी शरबतके ऊँचे प्याले।।
चेतन कहे छे: कोट–पाटलुन–बूट पहेरावीने में कायाने खूब शणगारी, एटलाथी ते राजी न
थई एटले तेना माथे टोपो पहेराव्यो, ने गळामां नेकटाई बांधीने तेनी शोभा वधारी; अरे, माथे
गांधी टोपी पहेरावीने तेनी ईज्जत खूब वधारी दीधी; पण आजे आ काया मारी बधी महेनत
उपर पाणी फेरवी रही छे...अरेरे! हुं एनी पुराणी प्रीतिने केम छोडूं? (७)
श्रीगुरु कहे छे–हे काया! आ चेतन जे फरियाद करे छे तेनो शुं खुलासो छे?
काया कहे छे–सांभळो, हे गुरुदेव! चेतन जे कहे छे ते तो बधो अज्ञानभरेलो बकवास छे, हे
स्वामी! मारो स्वभाव तो जड छे, आ चेतन अभिमानी छे, ते पोताना अभिमानवश खेंचाताणी
करे छे. कोट–पाटलुन पहेरीने बहुरूपी वेष बनाववानी ईच्छा स्वयं करीने ते पोतानुं मनमान्युं करे
छे ने मने नाच नचावे छे; चेतननी आवी नादानी देखी–देखीने हुं पस्ताउं छुं–हाय! हुं मारी
पुराणी रीतने केम छोडुं? (८)
आ बाबतमां श्रीगुरुए चेतनने पूछतां तेणे कह्युं: हे स्वामी! में आ कायाने दूध–मलाई–
हलवा–राबडी ने उत्तम भोग खवडाव्या, तथा अत्तर–फळ–फूल पण तेने माटे ज मंगाव्या; मधुर
खुशबूवाळा ऊंचा–ऊंचा तेल–लवन्डर तेने ज लगाव्या, अने शरबतना ऊंचा