Atmadharma magazine - Ank 377
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: २० : आत्मधर्म : फागण : २५०१
किन्तु आज यह यों कहती है, देखो खींचातानी को।
हाय! कहो अब कैसे छोडूँ, अपनी प्रीत पुरानी को?।।
(९)
काया–[जोरसे हँसकर] गुरुदेव! क्या पागल सरीखी बातें बकता है?’
मैं हूँ जड, ये है गुरु चेतन, इनके मेरे काम जुदे हैं।
खाते हैं खुद ये ही स्वामी, दूध मलाई पेंडे हैं।
शरबतके प्याले भरभर कर, हाय! चेतनजी पीते थे।
ये ही गंध खुश्बूवाले, दौड दौड कर लाते थे।
किन्तु झूठा दोष लगा, मेरी करते बदनामीको।
हाय! कहो अब कैसे छोडूँ, अपनी रीत पुरानी को? ।। १०
गुरुदेव–कहो चेतनजी! काया जो बात बता रही है वह तो ठीक प्रतीत होती है। उस
पर आप क्या कहना चाहते हो?
चेतन–इस पापिनके पीछे मैनें, भक्ष्याभक्ष्य सभी खाये।
आलू गोबी और टमाटर, झोली भरभरके लाये।
रात गिनी नहिं दिवस गिना नहिं, जब आया तबही खाया।
पिया तेल कोडलिव्हरका अरु इंजक्शन भी लगवाया।
प्याला पण तेने ज पीवडाव्या छे.–छतां आजे ते मारी साथे आववानी ना कहीने खेंचाताणी करे छे.–
देखो अन्याय! हाय रे, शरीर साथेनी मारी जीवनभरनी प्रीतिने हवे हुं केम छोडुं?–एना वगर एकलो
क््यां जाउं? (९)
–चेतननी ए वात सांभळतां काया जोरथी हसीने कहे छे के हे गुरुदेव! आ चेतन आवी पागल
जेवी वात केम बके छे! हे स्वामी! हुं तो जड छुं ने ते चेतन छे, तेनुं अने मारुं काम तद्न जुदुं छे. दूध–
मलाई ने पेंडा खावानी ईच्छा तो ते करे छे, शरबतना प्याला भरीभरीने पीवानी ईच्छा तो चेतनजी
करे छे, सुगंधी–खुशबू तरफ एनुं चित्त दोडे छे,–हुं तो ए कोई वस्तुनी ईच्छा करती नथी, छतां आ चेतन
मारा पर जूठो आरोप लगावीने मारी बदनामी करे छे.–पण हे नाथ! हुं मारी पुराणी रीतने केम छोडुं?
(१०)
गुरु कहे छे–अरे चेतनजी! आ काया जे वात कहे छे ते तो व्याजबी लागे छे, तो ते संबंधमां
तमारे शुं कहेवानुं छे?
त्यारे चेतनजी जरा क्रोधथी कहे छे के–अरे! आ पापिणी काया खातर में भक्ष्याभक्ष्यनो विचार कर्या
वगर आलु–कंदमूळ फूलकोबीच वगेरे खाधुं, रात–दिवस जोया वगर ज्यारे आव्युं त्यारे खाधुं, कोडलीवर