: फागण : २५०१ आत्मधर्म : २१ :
इतने पर भी अकड अकड कर, बता रही मर्दानीको।
हाय! कहो अब कैसे छोडूँ, अपनी प्रीत पुरानीको?।।११
काया–साफ झ्रूठा है गुरुदेव इसका कहना! सुनिए मेरा इस पर उत्तर–
भक्ष्याभक्ष्य पदार्थ ही मेरे खातिर न कभी खाये हैं।
अपनी ममता की पूर्ती हित, तुमने माल उडाये हैं।
रे चेतन! तुं हुआ लोलुपी, रात दिवस अन्याय किया।
सुन्दर नारीसे रमनेको मछलीका भी तेल पिया।।
अरे! मैंने कईबार धिक्कारा तेरी इस नादानीको।
हाय! कहो अब कैसे छोडूँ, अपनी रीत पुरानी को? ।।१२
चेतन–गुरुदेव! आश्चर्य है इस कायाकी इन कृतध्नताभरी बातोंका! )
इसी देहके पीछे मैंने, धर्म कर्म सब छोड दिया।
मात–पिता–सुत–नारि मित्रसे, मैंने नाता तोड दिया।
जो आज्ञाएं इसने दी, वे सब मैंने पूरी की थी।
इसके पीछे पाप–पुण्य की सभी बला सिरपर ली थी।।
किन्तु आज देखो ये कैसी, करती है हैवानीको।
हाय! कहो अब कैसे छोडूँ, अपनी प्रीत पुरानी को?।।१३
माछलीनां तेल पीधां ने ईन्जेकशन पण लीधां; आटलुं–आटलुं करवा छतां आ काया अक्कडपणे
पोतानी बहादूरी बतावे छे ने मारो दोष काढे छे! अरे, आ कायानी पुराणी प्रीतने हवे हुं केम
छोडुं? (११)
काया उश्केराईने कहे छे के हे गुरुदेव! आ चेतननी वात तद्न खोटी छे. मारी वात
सांभळो–भक्ष्याभक्ष्य पदार्थ एणे मारी खातर कदी नथी खाधा, मात्र पोतानी ममता पूरी करवा
खातर तेणे माल ऊडाव्या छे. अरे चेतन! तें लोलूपी थईने रातदिवस अन्याय कर्या, सुन्दर स्त्री
साथे रमण करवा माछलीनुं तेल पण पीधुं; अरे, तारी आवी नादानीने में घणीवार धिक्कारी...पण
तुं न मान्यो. हवे हुं मारी पुराणी रीतने केम छोडुं? (१र)
चेतन कहे छे–हे गुरुदेव! आ कायानी आवी कृतघ्नता भरेली वात सांभळीने मने आश्चर्य
थाय छे! आ कायानी पाछळ में मारा बधा धरम–करम छोडी दीधा, माता–पिता–पुत्र–नारी–मित्र–
ए बधानो संबंध पण तोडयो; कायाए मने जे–जे आज्ञा करी ते बधी में पूरी करी; एने खातर
पाप–पुण्यनी अनेक बला माथे चडावी; छतांय जुओ तो खरा! आज ते केवी हेवानी करे छे!
अरेरे, हुं कायानी साथेनी पुराणी प्रीतने केम छोडुं? (१३)