: २२ : आत्मधर्म : फागण : २५०१
काया–आश्चर्य है गुरुदेव! हैवानी यह खुद करता है। और दोष मेरे सिर लगाता है।
इसी निगोडे चेतनने, सब धर्म कर्म ही छोड दिया
मात–पिता–सुत–नारि–मित्रसे, इसी मूर्खने कपट किया।
मेरी इच्छाके विरुद्ध, पापीने पाप कमाये थे
खुद इसने ही अत्याचारोंके तूफान उठाये थे।।
फिर भी दोष लगाता मुझको, धिक्कार रहो इस प्राणीको।
हाय! कहो अब कैसे छोडूँ, अपनी रीत पुरानीको?।।१४
चेतन–अब बहुत निराश होकर करुणाभरे स्वरमें कहता है–
हे काये! मैं करुं निवेदन, दया करो मुझ दुखियापर
प्रीत पुरानी जरा निभालो, साथ हमारे तुम चलकर।
हाथ जोड़कर तेरे पगमें, अपना शीष झुकाता हूँ
चलो साथ, नहिं रहो यहाँ, मैं अपना कसम दिलाता हूँ।।
बार–बार मैं मांगत माफी, क्षमा करो अज्ञानीको
हाय! कहो अब कैसे छोडूँ, अपनी प्रीत पुरानीको?।।१५
काया–हे चेतन मैं करुं निवेदन, मुझे न अब तुम तंग करो
प्रीत यहीं तक तेरी–मेरी, आगेकी मत आश करो।
काया बोली–आश्चर्य छे हे गुरुदेव! हेवानी तो चेतन पोते करे छे अने दोष मारा उपर
ढोळे छे. आ नगुणा चेतने बधा धरम–करम छोडी दीधा, माता–पिता–सुत–नारी–मित्र ए बधा
साथे मूरखाए कपट कर्युं, मारी ईच्छा विरुद्ध ए पापीए पाप बांध्या, अने तेणे ज अत्याचारोना
तोफान ऊभा कर्या; छतांय, धिक्कार छे आ प्राणीने के दोष मारा उपर लगावे छे.–पण अरेरे, मारी
पुराणी रीतने हुं केम छोडुं?–परभवमां जीवनी साथे हुं केम जाउं? (१४)
हवे चेतन निराश थई गयो ने करुणाभरेला अवाजथी कायाने विनववा लाग्यो: हे काया! आ
दुःखिया उपर करुणा करीने तुं मारी साथे चाल...ने आपणी पुराणी प्रीतिने थोडीक नीभावी ले. हुं
हाथ जोडीने तारा पगमां शिर झुकावुं छुं...मारा सोगन्द आपीने हुं तने कहुं छुं–के हे काया! तुं अहीं
न रहे, मारी साथे चाल. हुं मारी भूलनी वारंवार माफी मांगुं छुं...तुं मने–अज्ञानीने क्षमा कर...ने
मारी साथे चाल! हुं तारा अनादिना स्नेहने केम छोडुं? (१प)
काया कहे छे–हे चेतनजी! हुं तमने विनति करुं छुं के हवे मने हेरान न करो. मारी ने तारी
प्रीति अहीं आ भव सुधी ज हती, ते पूरी थई, हवे आगळनी आशा न करो. हुं तने हाथ जोडीने
कहुं