: २४ : आत्मधर्म : फागण : २५०१
–आ प्रमाणे चेतन अने काया ए बंनेनी वात सांभळीने छेवटे श्रीगुरुए
संपूर्णपणे चेतनने तेनुं स्वरूप समजावतां कह्युं के–अरे चेतन! कायाने साथे लई
जवानो तारो अज्ञानभरेलो आग्रह तुं छोडी दे! कायानी वात साची छे. परमार्थरूप
साचुं तत्त्व तो ए छे के तुं चेतन छो ने काया जड छे, बंने सर्वथा जुदा छो; पण तारुं
अज्ञान अने मोह तने ते सत्य तत्त्वनो बोध थवा देता नथी. अज्ञानथी तुं कायाने
पोतानी मानी बेठो छे, ते मान्यता शीघ्र छोडी दे, अने कायाथी भिन्न पोताना
असंयोगी चेतनस्वरूपी आत्मानुं साचुं स्वरूप समजी ले. कायानी मायामां मफतनो शा
माटे हेरान थई रह्यो छे? एनुं तो स्वरूप ज विनाशीक अने अनित्य छे, तुं आत्मा
अविनाशी नित्य रहेनार छो. माटे हे चेतनभैया! हवे तो आंख ऊघाड! अने तारी
अखंडता नित्यता तथा शुद्धतानो साक्षात् अनुभव कर.
सर्वज्ञज्ञान विषे सदा उपयोगलक्षण जीव छे,
ते केम पुद्गल थई शके?–के मारुं आ तुं कहे अरे!
श्री गुरुनो आवो सारभूत उपदेश सांभळीने चेतन पोताना अज्ञानने छोडीने
प्रतिबुद्ध थयो, हवे ते पोते पोतानुं स्वरूप पोताना मुखथी कहे छे–
हुं एक शुद्ध सदा अरूपी ज्ञान–दर्शनमय खरे;
कंई अन्य ते मारुं जरी परमाणुमात्र नथी अरे.
मारो सुशाश्वत एक दर्शन–ज्ञानलक्षण जीव छे;
बाकी बधा संयोगलक्षण भाव मुजथी बाह्य छे.
हुं देह नहीं, वाणी न, मन नहीं, तेमनुं कारण नहीं;
कर्ता न, कारयिता न, अनुमंता हुं कर्तानो नहीं.
अहा, हुं तो ज्ञानस्वभावी आत्मा छुं. श्री गुरुए उपयोगलक्षण समजावीने,
देहथी भिन्न मारुं चैतन्यस्वरूप मने देखाडयुं. स्वसंवेदनथी मारुं चैतन्यस्वरूप जाणीने
हवे देहादि अचेतनवस्तु मने जरा पण मारी भासती नथी, ते माराथी बाह्य छे. हुं
चेतन, देह अचेतन; हुं अमूर्त, शरीर मूर्त; हुं असंयोगी, शरीर संयोगी; हुं आनन्दनुं
धाम, शरीर अशुचीनुं धाम; मारे तेनी साथे कांई लागतुं–वळगतुं नथी. देहनी भस्म
थाय तेथी कांई मारुं मृत्यु थतुं नथी. देह उपर हुं गमे तेटलो उपकार करुं, के तेनी पुष्टि
माटे ने तेनी शोभा माटे हुं गमे तेटला पाप करुं, तोपण आ कृतघ्नी काया मारा पर कंई
पण उपकार करवानी नथी; तेने माटे में जे पाप कर्यां ते पापनुं फळ भोगववा कांई ते
मारी साथे आववानी नथी. माटे तेनो मोह छोडीने हवे मारुं हित करवुं छे ने
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप एवो अशरीरी अतीन्द्रियभाव प्रगट करवो छे के जेथी
फरीने कदी आवी कायानो संग ज न थाय.
कायानी विसारी माया, स्वरूपे शमाया एवा,
निर्ग्रंथनो पंथ भव–अंतनो उपाय छे.