: फागण : २५०१ आत्मधर्म : २५ :
• याद आवे छे आकाशगामी
अरिहंतो.....गगनविहारी संतो अने
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(ले० ब्र. हरिलाल जैन)
[
गुरुदेव हालमां जे विस्तृत प्रवास करी रह्या छे तेमां अनेक वखत विमानमां
गगनविहारनो प्रसंग आवे छे. गुरुदेव साथे गगनविहारनो प्रसंग आ पत्रना
संपादकने अनेकवार प्राप्त थयो छे. गत वर्षमां एक विमानप्रवास वखते विमानमां
बेठाबेठा जे भावनाओ लखेली, ते अहीं आपवामां आवे छे.)
–‘अहा’, गुरु साथे निरालंबी मोक्षपंथे जई रह्या छीए.’ सम्यक्त्वादि
निरालंबीभाव जागतां पहेलांं निरालंबीपणा तरफनो महान वेग ऊपडे छे तेम,
गगनविहार पहेलांं ते माटेनो महान वेग शरू थयो. विमाने वेग पकड्यो. हजी जमीन
उपर दोडे छे! आहा, केवो वेग! हजी तो सविकल्प दशामां ज छीए...त्यां तो एकक्षणमां
निर्विकल्पदशामां आवी गया. चैतन्य तरफना तीव्र वेगथी, सविकल्पमांथी निर्विकल्प
क््यारे थई जवाय छे!–ते लक्ष रहेतुं नथी, तेम वेगवाळुं विमान जमीननुं आलंबन
छोडीने क््यारे नीरालंबी थई गयुं–तेनुं लक्ष पण न रह्युं. वेग तो निरालंबी तरफ ज
हतो ज्यां बारीमांथी