Atmadharma magazine - Ank 377
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: २६ : आत्मधर्म : फागण : २५०१
बहार जोयुं त्यां तो नीचे दरियो, पण अमे तो ए–दरियानी उपर तरीए छीए, ऊडीए
छीए; वच्चे अनेक नगरीओ देखाय छे पण ते नगरीथी अत्यंत अलिप्त छीए. आखी
नगरीने जोवा छतां तेनाथी घणा ऊंचे, निजस्थाने ज गमन करीए छीए.
अतिशय झडप अने छतां अत्यंत मधुरी शांति! स्वानुभूतिमां परिणामनी
अतिशय झडप अने छतां केवी मधुरी शांति! बधुं जोया करवानुं गमे छे अने छतां
क््यांय मोह नथी थतो,–निर्लेपपणे दुनियाने देखी रह्या छीए. सर्वत्र जाणे सुंदरता ज
व्यापेली छे. अहा, चैतन्य पोते पोतानी सुंदरतामां होय त्यारे तेने माटे आखुंय विश्व
सुंदर ज छे, एने माटे असुंदर जगतमां कांई नथी.
गुरु तो साथे ज छे. सालंबीभाव वखते बहारमां गुरुनुं अवलंबन हतुं, तो आ
निरालंबी भावमां गुरुनो साथ छे...गुरु पण निरालंबी, ने तेना मार्गे चालनारा जीवो
पण निरालंबी. अहो! चैतन्यनो निरालंबी मार्ग! केटलो सुंदर छे! केवो प्रशस्त छे! ने
ईष्ट–स्थाने केवी झडपथी पहोंचाडे छे! अहा! आवा मार्गे जतां निजध्याननी शांत
उर्मिओ जागे छे!
जगतनी कोई जंजाळ नथी. जगतनो कोई कोलाहल नथी.
जगतनी कोई प्रवृत्ति नथी. मार्गमां कोई रूकावट नथी.
जेम विमानप्रवास शरू करतां पहेलांं त्रण त्रण वखत चेकींग करावीने निःशंकता
करी, तेम चैतन्यना निरालंबी मार्गमां आवतां पहेलांं वीतरागी देव–गुरु–शास्त्रनुं
पूरेपूरुं चेकींग करीने, बराबर परीक्षा करीने, मार्गनी निःशंकता प्राप्त करी; ने पछी
निःशंकताना बळे मार्ग शरू कर्यो...ज्ञानगगनमां ऊडया! अहा, मार्ग शरू थया पहेलांं
विमानमां केवो बफारो थतो हतो! सौ केवा अकळाता हता! ने परसेवे रेबझेब थईने
नीतरता हता! पण ज्यां मार्गमां प्रवास शरू थयो त्यां अकळामण मटी गई, ने केवी
मीठी शांति ने ठंडक आववा मांडी! तेम चैतन्यमार्गमां जीव ज्यां सुधी चालवा न मांडे
त्यां सुधी ज तेने अकळामण ने मूंझवण थाय छे; पण ज्यां मार्गमां चालवा मांडे छे–
परिणति अंतरमां वळे छे, त्यां तो बधी अकळामण मूंझवण के कषायनो बफारो दूर
थईने परम शीतळ–शांति वेदनमां आवे छे. मार्गमां थाक लागतो नथी.
वाह रे वाह! धन्य श्री गुरुओनो नीरालंबी मार्ग! ने धन्य ए नीरालंबी
मार्गनो प्रवास!