धर्मी–श्रावके विवेकथी कह्युं: जी! अमे पांचे पंचपरमेष्ठीभगवंतोने
मानीए छीए...ते पंचपरमेष्ठीनी पंक्तिमां छे के नहीं–तेनो विचार तो तमे ज
करो.
परमभक्तिथी तेमने नमस्कार करीए छीए.
ते क््यो जैन–बच्चो छे–के जे पंचपरमेष्ठीने न माने! ईन्द्रो अने चक्रवर्तीओनुं
शिर पण जेमना चरणे झुकी जाय एवा रत्नत्रयवंत भगवंतो–तेमने क््यो
धर्मात्मा न आदरे? अहो! तेमना साक्षात् दर्शननी तो शी वात! तेमना
बहारमां ईंद्रादि कोण नमे छे! ने कोण मिथ्याद्रष्टिओ नथी नमता–ए जोवानी
प्रमोद जरूर आवे छे...गुणने देखीने प्रमोद न आवे–एने धर्मप्रेम केवो? आवा
पंचपरमेष्ठी पद ते तो जगतपूज्य छे, आत्माना परम ईष्ट पद छे. आवा
पंचपरमेष्ठीने देखीने पण तेमना चरणोमां जेनुं शिर न झुके ते जैन केवो? ते
मुमुक्षु केवो? जैन मुमुक्षुनुं हृदय तो पंचपरमेष्ठीने देखतां ज तेमना गुणो प्रत्ये
परमभक्तिथी नमी पडे छे: अहो रत्नत्रयना भंडार! तमारा जेवा गुणोनी