Atmadharma magazine - Ank 377
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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अमे पंचपरमेष्ठीना भक्त छीअ
एक माणसे कोई धर्मी–श्रावकने पूछयुं: तमे साधुने मानो छो?
धर्मी–श्रावके विवेकथी कह्युं: जी! अमे पांचे पंचपरमेष्ठीभगवंतोने
मानीए छीए; जे साधु पंचपरमेष्ठीभगवंतोमां आवी जता होय तेमने जरूर
मानीए छीए...ते पंचपरमेष्ठीनी पंक्तिमां छे के नहीं–तेनो विचार तो तमे ज
करो.
जगतमां अनंत सिद्धभगवंतो, लाखो अरिहंतभगवंतो, तथा करोडो
मुनिभगवंतो–तेमने ज्ञानमां स्वीकारीने दररोज (पंचनमस्कारमंत्रद्वारा)
परमभक्तिथी तेमने नमस्कार करीए छीए.
अरे, पंचपरमेष्ठीभगवंतो–अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु,–
ते तो जगतमां सर्वोत्तम मंगळरूप छे,–एने कोण न माने? कोण न वंदे? एवो
ते क््यो जैन–बच्चो छे–के जे पंचपरमेष्ठीने न माने! ईन्द्रो अने चक्रवर्तीओनुं
शिर पण जेमना चरणे झुकी जाय एवा रत्नत्रयवंत भगवंतो–तेमने क््यो
धर्मात्मा न आदरे? अहो! तेमना साक्षात् दर्शननी तो शी वात! तेमना
नामनुं स्मरण पण मंगळरूप छे.
अहा, आवा पंचपरमेष्ठीपदमां जे बिराजता होय, एने वळी ‘बीजा
मने माने छे के नथी मानता’ एनी चिंता केवी? चैतन्यपदमां लीनता आडे,
बहारमां ईंद्रादि कोण नमे छे! ने कोण मिथ्याद्रष्टिओ नथी नमता–ए जोवानी
फूरसद ज कोने छे? ते तो निरपेक्ष छे; परंतु बीजा जीवने तेमनां गुणो देखीने
प्रमोद जरूर आवे छे...गुणने देखीने प्रमोद न आवे–एने धर्मप्रेम केवो? आवा
पंचपरमेष्ठी पद ते तो जगतपूज्य छे, आत्माना परम ईष्ट पद छे. आवा
पंचपरमेष्ठीने देखीने पण तेमना चरणोमां जेनुं शिर न झुके ते जैन केवो? ते
मुमुक्षु केवो? जैन मुमुक्षुनुं हृदय तो पंचपरमेष्ठीने देखतां ज तेमना गुणो प्रत्ये
परमभक्तिथी नमी पडे छे: अहो रत्नत्रयना भंडार! तमारा जेवा गुणोनी
प्राप्ति माटे हुं तमने नमस्कार करुं छुं.