: २८ : आत्मधर्म : फागण : २५०१
वगरनी स्वाधीन चेतना ते आपनो मार्ग छे. आपनी जेम अमे पण नीरालंबी मार्गे
आवी रह्या छीए.
अहा, गगनमां तो शांति ज होय ने? चैतन्यतत्त्व केवुं शांत निरालंबी छे!
प्रभो! समवसरणनो संग छतां आप असंगभावे रहो छो; तेम यात्रामां अन्य
यात्रिकोनो संग छतां हुं असंगभावे वर्ती रह्यो छुं. केटली झडपथी गमन थई रह्युं छे–
छतां केवी स्थिरता ने शांति छे! झडप होवा छतां आकुळता नथी. आत्मा एक सेकन्डमां
असंख्यभावनी झडपे परिणमतो होवा छतां केवुं स्थिर अने शांत परिणमन छे!
आटली झडप छतां आकुळता नथी.
दुनियाथी आत्मा केवो अलिप्त छे!–बहार नजर करो तो दुनिया नजरे
देखाय छे पण आत्मा तेनाथी अलिप्त ज रहे छे. दुनियाथी ऊंचे ऊंचे अलिप्तपणे
दूरदूर रहीने जोतां दुनिया पण केवी शांत अने सुंदर लागे छे! क््यांय कलेश के
अशुद्धता देखाता नथी. तेम अलिप्तभावे ज्ञानगगनमां ऊंचे ऊंचे–परिणमता
आत्माने माटे दुनिया पण सुंदर छे, तेने माटे क््यांय कलेश नथी, असुंदरता नथी.
पोते पोताना अलिप्त सुंदर चैतन्यभावमां परिणमी रह्यो छे तेने माटे बधुं ज
सुंदर छे!
नीचेथी देखनारी दुनिया अमारा विमानने साव नानकडुं देखे छे, पण ते
केवडुं मोटुं छे ते तो अंदर बेठेलाने देखाय छे; तेम चैतन्यनो साधकभाव केटलो
महान छे तेने दूरना (संसारी) जीवो देखी नथी शकता. कदाच महिमा करे तो
थोडोक करे छे, पण एनी महान गंभीरताने तो तेमां बेसीने ते भावनुं वेदन
करनारा ज जाणीए छीए. आहा! केवुं महान छे चैतन्यवेदन! एमां बेसीने
मुक्ति–प्रवासनी केवी अद्भुत मोज छे!
लोकोमां बहारना विमानमां बेसनार पण जाणे पोतानुं गौरव अनुभवे छे, तो
चैतन्यनी आनंदमोजमां विहरनारा जीवोने नीरालंबी चैतन्यभावनुं जे गौरव छे, ने
लोकमां जे श्रेष्ठता छे,–तेनी शी वात! !
अमे चैतन्य–पथना विहारी... अमे ज्ञानगगनना विहारी!
अमने आनंद अपरंपारी... अमे सिद्धपदना विहारी.
अमे गुरु साथे जईए... अमे गुरु–मार्गे जईए
अमे ज्ञाननी पांखे ऊडीए... अमे जगथी ऊंचे जईए.
वच्चेनी जमीन पर केटलाय टेकरा ने खाडा आवे छे, ऊंचा पर्वतो ने ऊंडां