Atmadharma magazine - Ank 377
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: २ : आत्मधर्म : फागण : २५०१
(सम्यक्त्व–लेखमाळा लेखांक ९)
सम्यक्त्व माटे मुमुक्षु जीवनुं जीवन केवुं होय? सम्यक्त्वनी
भावना वखते अंदर केवा भावो होय? ने सम्यक्त्व पछी केवुं
सुंदर जीवन होय? ते संबंधी आठ विविध लेखोनुं सम्यक्त्व–
लेखमाळामां संकलन करवामां आव्युं छे. आ संकलन दरेक
जिज्ञासुओने खूब ज गम्युं छे. प्रथमना आठ लेखो आत्मधर्ममां
तेम ज ‘सम्यग्दर्शन’–पुस्तकना पांचमा भागमां छपाई गया छे.
त्यारपछीना बीजा आठ लेखो अहीं आपवामां आवशे. (सं.)
* * * * *
आत्मसन्मुख थयेल जीवने पहेले ज धडाके रागनां पोषक एवा कुदेव–कुगुरुनुं
सेवन अंतरथी छूटी जाय छे, एटले तेने गृहीत–मिथ्यात्व छूटी गयेल होय छे; अने
साचा देव–गुरु–धर्म के जेओ आत्मानी साची शांतिनो मार्ग बतावे छे ते तेने गमी
जाय छे, एटले ज्ञानमां तेमना स्वरूपनो बराबर निर्णय करीने तेमना प्रत्ये अर्पणता
करी होय छे. नव तत्त्वना भिन्न भिन्न भावोने जेम छे तेम विचारे छे; शुभराग वगेरे
बंधभावने निर्जरामां खतवतो नथी, तेमज तेने सम्यग्दर्शनादि–संवर–निर्जरानुं कारण
मानतो नथी; ए रीते नवतत्त्व जेम छे तेम बराबर ज्ञानमां जाणे छे.
जे जिज्ञासुने पांचे ईन्द्रियोना विषयोमांथी सुखबुद्धि घटी गयेल होय छे, ने
आत्माना सुखनो रंग लागेल होय छे. मांस–मध–ईंडा के दारूने तो ते अडतो पण नथी,
ने जुगार–सिनेमा–रात्रिभोजन वगेरे तीव्रपापथी पण ते दूर रहे छे. अरे, जेमां
शांतिनी गंध पण नथी एवा निष्प्रयोजन पापकार्यो ते शांतिना चाहक जीवने केम
गमे? सत्समागम, वीतरागनी पूजा–भक्ति, आत्मशांतिना पोषक ग्रंथोनुं वांचन,
मनन तेने खूब गमे छे. तेमां जे शुभपरिणाम थाय छे तेने अने ते वखतना
ज्ञानरसना घोलनने ते जुदा–जुदा ओळखे छे; तेमांथी ते रागना भागने धर्मनुं साधन
मानतो नथी; ते राग