Atmadharma magazine - Ank 377
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 8 of 37

background image
: फागण : २५०१ आत्मधर्म : ५ :
पर साथे एकत्वबुद्धिनुं बंधन तो तेने थतुं ज नथी. चारित्र अपेक्षाए जेटला राग–द्वेष
छे तेटलुं बंधन थाय छे, पण ते अल्प छे, तेनाथी अनंत संसार वधतो नथी. ज्यारे
अज्ञानीने शुभभाव होय तोय ते रागथी भिन्न चैतन्यने ज जाणतो होवाथी तेने
मिथ्यात्वने लीधे अनंत संसार ऊभो छे.
चोथा गुणस्थाने जीवने एकवार शुद्धोपयोगपूर्वक स्वरूपनुं वेदन थई गयेल छे,
ते तेने भूलातुं नथी; अरे फरीफरी तेवा निर्विकल्प उपयोग माटे तेने भावना रह्या करे
छे, तथा क््यारे संसारथी विरक्त थईने मुनि थाउं अने स्वरूपमां लीन थईने पूर्ण
सुखमय बनी जाउं–एवी अंतरंगभावना निरंतर होय छे. सर्वज्ञ–स्वभावनो अने
वस्तुमां क्रमबद्ध–परिणमननो पण तेने बराबर निर्णय वर्ते छे. ज्यांसुधी पूर्णपद न
पमाय त्यांसुधी भेदज्ञान चालु छे, अने पूर्णताना लक्षे ऊपड्यो छे तेनी साधना चालु
छे, ते थोडाक वखतमां पूर्णपदने जरूर पामशे ज.–सम्यग्दर्शननो आ प्रताप छे.
जय सम्यग्दर्शन
आत्ममस्त धर्मी जीव....
....ताको वंदना हमारी है
धर्मीजीव अंतरअनुभवथी पोताना स्वभावने देखीने परम प्रसन्न
थाय छे...चैतन्यना अनुभवनी खुमारी एना चित्तने बीजे क््यांय लागवा
देती नथी. स्वानुभवना शांतरसथी ते तृप्त–तृप्त छे; चैतन्यना आनंदनी
मस्तीमां ते एवा मस्त छे के हवे बीजुं कांई करवानुं रह्युं नथी...हुं ज ज्ञान–
दर्शन–चारित्र छुं, हुं ज मोक्ष छुं, हुं ज सुख छुं; मारो स्वभाव वृद्धिगत ज
छे, परभावनो मारामां प्रवेश नथी. हुं मारा चैतन्यविलासस्वरूप छुं.
चैतन्यमां बीजा कोईनी चिन्ता नथी. एकत्व चैतन्यना चिन्तनमां परम
सुख छे. सर्व सुख–संपत्तिनो निधान एवो हुं छुं. मारा स्वरूपने देखीदेखीने
जो के परम तृप्ति अनुभवाय छे, तोपण ए अनुभवनी कदी तृप्ति थती नथी,
–एमांथी बहार आववानी वृत्ति थती नथी. स्वरूपनो बधो महिमा
स्वानुभवमां समाय छे.–आवी जेनी अनुभवदशा...ते जीव धर्मी...
– ताको वन्दना हमारी है।