छे तेटलुं बंधन थाय छे, पण ते अल्प छे, तेनाथी अनंत संसार वधतो नथी. ज्यारे
अज्ञानीने शुभभाव होय तोय ते रागथी भिन्न चैतन्यने ज जाणतो होवाथी तेने
मिथ्यात्वने लीधे अनंत संसार ऊभो छे.
छे, तथा क््यारे संसारथी विरक्त थईने मुनि थाउं अने स्वरूपमां लीन थईने पूर्ण
सुखमय बनी जाउं–एवी अंतरंगभावना निरंतर होय छे. सर्वज्ञ–स्वभावनो अने
वस्तुमां क्रमबद्ध–परिणमननो पण तेने बराबर निर्णय वर्ते छे. ज्यांसुधी पूर्णपद न
पमाय त्यांसुधी भेदज्ञान चालु छे, अने पूर्णताना लक्षे ऊपड्यो छे तेनी साधना चालु
छे, ते थोडाक वखतमां पूर्णपदने जरूर पामशे ज.–सम्यग्दर्शननो आ प्रताप छे.
देती नथी. स्वानुभवना शांतरसथी ते तृप्त–तृप्त छे; चैतन्यना आनंदनी
मस्तीमां ते एवा मस्त छे के हवे बीजुं कांई करवानुं रह्युं नथी...हुं ज ज्ञान–
दर्शन–चारित्र छुं, हुं ज मोक्ष छुं, हुं ज सुख छुं; मारो स्वभाव वृद्धिगत ज
छे, परभावनो मारामां प्रवेश नथी. हुं मारा चैतन्यविलासस्वरूप छुं.
चैतन्यमां बीजा कोईनी चिन्ता नथी. एकत्व चैतन्यना चिन्तनमां परम
सुख छे. सर्व सुख–संपत्तिनो निधान एवो हुं छुं. मारा स्वरूपने देखीदेखीने
जो के परम तृप्ति अनुभवाय छे, तोपण ए अनुभवनी कदी तृप्ति थती नथी,
स्वानुभवमां समाय छे.–आवी जेनी अनुभवदशा...ते जीव धर्मी...