: ६ : आत्मधर्म : फागण : २५०१
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(नवीन स्वाध्याय: पाहुड–दोहा)
(३)
६७. तुं गुणनिलय आत्माने छोडीने ध्यानमां अन्यने ध्यावे छे, परंतु हे मूर्ख! जे
अज्ञानथी मिश्रित छे तेमां केवळज्ञान क््यांथी होय?
६८. केवळ आत्मदर्शन ते ज परमार्थ छे, बीजुं बधुं व्यवहार छे. त्रणलोकनो जे सार
छे एवा एक आ परमार्थने ज योगिओ ध्यावे छे.
६९. आत्मा ज्ञानदर्शनमय छे, बीजी बधी तो जंजाळ छे;–आम जाणीने हे
योगीजनो! तमे मायाजाळने छोडो.
७०. जगतिलक आत्माने छोडीने परद्रव्यमां रमे छे,...तो शुं मिथ्याद्रष्टि ने माथे
शींगडा होतां हशे? (–श्रेष्ठ आत्माने छोडीने परमां रमणता करे छे ते
मिथ्याद्रष्टि ज छे.)
७१. हे मूढ! जगतिलक आत्माने छोडीने तुं अन्य कोईनुं ध्यान न कर.–जेणे
मरकतमणिने जाणी लीधो तेने शुं काचनी कांई किंमत छे?
७२. हे वत्स! शुभपरिणामथी धर्म (–पुण्य) थाय छे, अने अशुभपरिणामथी
अधर्म (–पाप) थाय छे; (–ए बंनेथी तो जन्म थाय छे.) पण ए बंनेथी
विवर्जित जीव फरीने जन्म धारण करतो नथी,–मुक्ति पामे छे.
७३. हे योगी! कर्मो तो स्वयं भेगां थाय छे ने वळी विखूटा पडी जाय छे
(–क्षणभंगुर छे,)–एम निःशंक जाण.–शुं चंचळ स्वभावना पथिकोथी ते क््यांय
गाम वसतुं हशे? (पथिको तो रस्तामां भेगा थाय ने छूटा पडे, तेमनाथी कांई
गाम वसे नहि, तेम संयोग–वियोगरूप एवा क्षणभंगुर पुद्गल कर्मोवडे
चैतन्यनुं नगर वसे नहि. आत्माने ए कर्मोना संयोग–वियोगथी भिन्न जाणो.
७४. हे जीव! जो तुं दुःखथी बीतो हो तो अन्यने जीव न मान (अन्य जीवने
ताराथी भिन्न जाण), अने अन्यनुं चिंतन न कर. केमके तलनां फोतरां जेटलुं
पण शल्य जरूर वेदना करे छे.
७५. जेम सूर्य घोर अंधकारने निमिषमात्रमां नष्ट करी नांखे छे, तेम आत्मानी
भावना वडे पापो एकक्षणमां नष्ट थई जाय छे.