: चैत्र : २५०१ आत्मधर्म : ९ :
हे वीरनाथ भगवान! अंतरना आनंदमयमार्गे आप शिवपुरीमां पहोंच्या.
[लेखांक: चोथो]
अहो, भगवान महावीरे जे वीतरागी
ईष्टउपदेश अढीहजार वर्ष पहेलांं आपणने आप्यो, ते
ज उपदेशनो वीतरागी प्रवाह श्रुतधर–संतोए चालु
राख्यो छे, ने महाभाग्ये आजे पण ते उपदेश पामीने
आपणे आपणुं आत्महित करी शकीए छीए. श्रुतनो
अपार महिमा आप आ प्रवचनमां वांचशो. देहमां
आत्मबुद्धिथी दुःखी थई रहेला जगतने अत्यंत
करुणापूर्वक देहथी जुदुं चैतन्यतत्त्व देखाडीने संतोए
महान उपकार कर्यो छे...
‘अरे खेद छे के पोतानी चैतन्यसमृद्धिने भूलेलुं आ जगत बाह्य
संपत्तिमां मूर्छाई पड्युं छे! ’ पोते बहिरात्मबुद्धिना अनंत दुःखथी छूटीने
चिदानंदतत्त्वने जाण्युं छे, अने जगतना जीवो पण आवा आत्माने जाणीने
बहिरात्मबुद्धिना अनंत दुःखथी छूटे एवी करुणाबुद्धिथी पूज्यपादस्वामी कहे
छे के ‘हा हतं जगत! ’ अरेरे! जगत बिचारुं भ्रमणाथी ठगाई रह्युं छे. खेद
छे के चैतन्यनी आनंदसंपदाने भूलीने जगतना बहिरात्मजीवो बहारनी
संपत्तिने ज पोतानी मानीने हणाई रह्या छे; आत्मानी सुध–बुध भूलीने आ
जगत अचेत जेवुं थई गयुं छे, तेने देखीने संतोने करुणा आवे छे.
अरे जीवो! तमे समजो के देहादि बाह्यपदार्थो आत्माना नथी, आत्मा तो