: १४ : आत्मधर्म : चैत्र : २५०१
* चैतनभाव ज साचुं जीवन छे....देहनो संयोग ए जीवन नथी. *
जिनवचननो सार; तेनुं फळ
सिद्धालयसुखनी प्राप्ति
(शीलप्राभृतना प्रवचनोमांथी)
शुद्धरत्नत्रयरूप आत्मस्वभाव ते शील छे. एवा शीलनी
आराधनावडे सिद्धालयनी प्राप्ति थाय छे. जे महात्माओ आवा शीलना
धारक छे तेमनो जन्म धन्य छे. आवा शीलधर्मनी प्राप्ति जिनवचनथी थाय
छे.
जिनवचनवडे जेणे सारने ग्रहण कर्यो छे,–सार शुं? के शुद्धआत्मा
ते ज जिनवचननो सार छे, –एवो सार जेणे ग्रहण कर्यो छे, अने
शुद्धात्मानुं ग्रहण करीने जेओ विषयोथी विरक्त थया छे, वळी जेओ
तपोधन छे, धीर छे, अने शीलरूपी पवित्र जळवडे स्नान करीने विशुद्ध
थया छे, तेओ सिद्धालयना सुखने पामे छे.
जुओ, आ जिनवचनना ग्रहणनुं फळ! जिनवचन शुद्धआत्मानुं
ग्रहण करावे छे ने विषयोनुं विरेचन करावे छे. स्वसन्मुख थईने जेणे
श्रद्धामां–ज्ञानमां ने चारित्रमां शुद्धआत्मानुं ग्रहण कर्युं तेणे जिनवचनना
सारनुं ग्रहण कर्युं. जिनवचनना ज्ञान वगर सत्यसार हाथमां आवे नहि.
पोताना जिनस्वरूपनी प्राप्ति ते जिनवचननो सार छे. शुद्धात्माना ग्रहण
अने अनुभव वगर बधुंय निस्सार छे.
शुद्धात्माना ग्रहण वगर विषयोथी साची विरक्ति थाय ज नहीं.
जिनवचननो सार जाणीने शुद्धात्मानुं ग्रहण करी मुनिवरो विषयोथी
विरक्त थाय छे, चैतन्यमां उपयोगने जोडीने परम उज्जवळता प्रगट करे
छे; तेओ एवा धीरपणे बुद्धिने स्वरूपमां जोडे छे के गमे तेवा परिषह आवे
तोपण डगता नथी. आवा मुनिवरो पूर्ण स्वरूपनी प्राप्ति वडे ८४ लाख
उत्तरगुणो सहित संपूर्ण शील प्रगट करीने, ते शीलरूपी जळवडे कर्ममळने
धोई नाखे छे ने मोक्षमंदिरमां बिराजता थका परम अतीन्द्रिय आनंदने
बाधारहित भोगवे छे. शीलनी एटले के शुद्धरत्नत्रयनी आराधनानुं आ
फळ छे, ने तेनी प्राप्ति जिनवचनद्वारा थाय छे. माटे जिनागमनो