Atmadharma magazine - Ank 378
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र : २५०१ आत्मधर्म : १५ :
* :सम्यक्त्वादि भाववडे चैतन्यजीवन जीववानो भगवाननो उपदेश छे *
निरंतर अभ्यास कर्तव्य छे, एटले जिनागमे कह्युं छे ते प्रमाणे स्वसन्मुख
परिणामनो निरंतर प्रयत्न कर्तव्य छे.
सौथी पहेलांं तो जिनवचन अनुसार शुद्धात्माने जाणीने
स्वसन्मुख स्वानुभव सहित तेनी सम्यक् प्रतीति करे ते सम्यग्दर्शननी
आराधना छे; त्यांथी कर्मोनी निर्जरा थवा मांडे छे. पछी स्वरूपमां स्थिर
थईने अत्यंत विशुद्धभावथी उत्कृष्ट आराधना करतां जीव मुक्ति पामे छे.
अने जेने कांईक आराधना अधूरी रही जाय ते धर्मात्मा मुनिराज के
श्रावक आराधना सहित सल्लेखना करीने स्वर्गमां जाय छे ने पछी मनुष्य
थई आराधना उत्कृष्टपणे पूर्ण करीने मोक्षने पामे छे. आ रीते शील कहो,
आराधना कहो, के मोक्षमार्ग कहो–ते जिनवचननो सार छे, ने तेनुं फळ
सिद्धालयसुखनी प्राप्ति छे.
सम्यग्ज्ञान सर्व प्रयोजननी सिद्धिनुं कारण होवाथी
मंगळरूप छे.
लोकमां सर्वजनप्रसिद्ध छे के यथार्थज्ञानथी सर्व सिद्धि छे. प्रथम तो
दर्शननी विशुद्धिपूर्वक भगवान अर्हंतदेव प्रत्ये परमभक्ति होय; आवा
सम्यक्त्वसहित होय ने जिनभक्ति सहित होय तेवा ज्ञानने ज खरेखर
ज्ञान कहेवाय छे. अहा, जेमना वचनथी सम्यक्त्वनी प्राप्ति थाय छे तेमना
प्रत्ये जो परमभक्ति न उल्लसे तो त्यां सम्यक्त्वनी आराधना क्यांथी
होय? जेना वचनथी सम्यक्त्व थाय छे एवा देव–गुरु प्रत्ये परमभक्ति
होय छे, एवी भक्ति वगरनुं ज्ञान ते ज्ञान नथी पण अज्ञान ज छे. वळी
चैतन्यनुं भान थतां अतीन्द्रिय आनंदना स्वाद पासे जगतना विषयोनो
स्वाद तूच्छ लागे छे, एटले सहेजे विषयोथी विरक्ति थई जाय छे. जो
चैतन्यरसनी परमप्रीति अने विषयोथी विरक्ति न थाय तो तेणे जाण्युं
शुं? तेणे संसार अने मोक्षना कारणने कई रीते जाण्या? विषयो तो
संसारनुं कारण छे अने विषयोथी विरक्ति करीने चैतन्यसन्मुख प्रवृत्ति ते
मोक्षनुं कारण छे. जे जीव संसार–मोक्षना कारणने ओळखे छे तेने
चैतन्यना आनंदना अनुभवनी प्रीति छे, ने विषयोमां आकुळतानुं वेदन
छे तेनाथी ते विरक्त थाय छे. अहा, चैतन्यनो परम शांतरस जेणे चाख्यो
तेने आकुळताजनक विषयोनो रस केम रहे?