: १६ : आत्मधर्म : चैत्र : २५०१
अमे पण आनंदपूर्वक आपना ज मार्गे शीवपुरीमां आवी रह्या छीए.
आ रीते सम्यग्दर्शन थतां ज चैतन्यनो रसीलो थईने जगतना विषयोथी
विरक्त थाय छे, तेथी सम्यक्त्व पण महान शील छे. आवा सम्यक्त्वरूपी
शीलसहित होय ते ज्ञान ज सम्यग्ज्ञान छे; ज्ञाननी ने शास्त्रने जाणवानी
महत्ता तो सम्यक्त्वथी ज छे. सम्यग्दर्शन वगरना ज्ञाननी के शास्त्रना
जाणपणानी कांई बडाई नथी. अहा, सम्यक्त्वसहित अने विषयोथी
विरक्त एवुं जे सम्यग्ज्ञान ते सर्वप्रयोजननी सिद्धिनुं कारण छे. तेथी ते
महान महिमावंत छे. आ रीते सम्यक्त्वसहितना ज्ञाननो जे महिमा कर्यो
ते ज मंगळ छे. तेनुं फळ मोक्षसुखनी प्राप्ति छे.
उत्सव आनंदथी हळीमळीने उजवीए
(वीरप्रभुना उपकार बाबतमां सौ एकमत छीए)
महावीर भगवानना अढीहजारवर्षीय निर्वाण–
महोत्सवमां वारंवार प्रमोदपूर्वक गुरुदेव कहे छे के–अहो, आवो
अवसर क््यारे आवे! आवा उत्सवमां परस्पर कलेश के विरोध
थाय एवुं कोईए करवुं न जोईए. भगवानमहावीर प्रत्ये
भक्तिभावथी, शासननी शोभा वधे, ने सर्वत्र शांति जळवाय ए
वात मुख्य राखीने सौए पोत पोताने योग्य लागे ते रीते
महोत्सव उजववो योग्य छे. उजवणीनो विरोध करवो योग्य नथी;
सौ एकबीजाना साधर्मी छीए–एम समजी क््यांय वेरविरोध न
थाय तेम सौए करवुं योग्य छे. कोईए एकबीजा माटे कटुभाषा
वापरवी न जोईए, सौए प्रेमथी अने जेटला बने तेटला
सहकारथी काम करवुं जोईए. महावीरभगवानना आपणा उपर
महान उपकार बाबतमां तो क््यांये मतभेद नथी, सौ एकमत
छीए. महावीर एक छे–महावीरना अनुयायीओ पण एकमत
थईने प्रभुना मोक्षगमननो महान उत्सव आनंदथी उजवीए,
अने ए पावन पंथे जईए. “जय महावीर” * *