: २२ : आत्मधर्म : चैत्र : २५०१
* महावीरनो मार्ग एटले वीतरागभावनी आराधना *
१०८. अरे, घासना झूंपडा जेवी आ मूर्त काया छे; हे योगी! तेमां जे प्राणवंतचेतन
निवास करे छे तेने तुं भाव.
१०९. मूळने छोडीने जे डाळ पर चडवा मांगे छे तेने योगअभ्यास केवो? जेम पींज्या
वगरना कपासमांथी वस्त्र वणातुं नथी, तेम मूळगुण वगर उत्तरगुण होतां नथी.
११०. जेना सर्वे विकल्पो तूटी गया छे अने जे चेतनभावने पाम्यो छे ते आत्मा
निर्मल ध्यानमां स्थित थईने परमात्मा साथे केलि करे छे.
१११. हे भव्य! परम देवने लक्षमां लईने, शीघ्र आजे ज तुं मस्त हाथीने जीती ले–के
जेना पर चडीने परम मुनिओ सर्व गमनागमनरहित एवा मोक्षमां पहोची
जाय छे.
११२. हे मस्त हाथी! हे करभा! आ विषम भवसंसारनी गतिने ज्यांसुधी तुं उखेडी
न नांख त्यां सुधी निजगुणना बागमां तुं मुक्तपणे तप–वेलडीने चर. तारा
बंधन छोडी देवामां आव्या छे.
११३. जेने तपरूपी दामन–लगाम छे, व्रतरूपी चोकडुं छे, अने शम–दमरूपी पलाण छे,
–एवा ऊंट पर बेसीने संयमधरो निर्वाणमां गया.
११४. एक तो पोते मार्गने जाणता नथी, ने वळी बीजा कोईने पूछता पण नथी,
–एवा मनुष्यो वन–जंगल ने पहाडोमां भटकी रह्या छे–एने तुं देख!
११५. जे तरुवर रस्ताने छोडीने दूर फळ्युं–फूल्युं छे ते नकामुं छे, नथी तो कोई पथिको
त्यां विश्राम लेता, के नथी तेना फळने कोई हाथ लगाडतुं. (तेम मार्गभ्रष्ट
जीवोनो वैभव नकामो छे.)
११६. छ दर्शनना धंधामां पडेला अज्ञानीओना मननी भ्रांति न मटी; अरेरे! एक
देवना छ भेद कर्या तेथी तेओ मोक्षने न पाम्या.
११७ एक पोताना आत्मा सिवाय अन्य कोई वेरी नथी. माटे हे योगी! जे भावथी
ते कर्मोनुं निर्माण कर्युं ते परभावने तुं मटाड.
११८. जो के हुं रोकुं छुं तोपण मन परमां जाय छे ने आत्मामां ठरतुं नथी; मन
विषयोमां भमवाना कारणे जीव नरकनां दुःखोने सहे छे.
११९. हे जीव! तुं एम न जाणतो के विषयो मारां छे ने मारां रहेशे; अरे, ए तो
किंपाकफळनी जेम तने दुःख ज देशे.
१२०. हे जीव! तुं विषयोनुं सेवन करे छे–पण ए तो दुःखने ज देनारां छे;–जेम