: चैत्र : २५०१ आत्मधर्म : २३ :
* भगवान महावीर जन्मकल्याणक–विशेषांक *
घी वडे अग्नि प्रज्वलित थाय छे तेम विषयो वडे तुं घणो बळी रह्यो छे.
१२१. जेणे अशरीरीनुं संधान कर्युं ते साचो धनुर्धारी छे; अने चित्तने एकाग्र करीने
जेणे शिवतत्त्वने साध्युं ते खरेखर निश्चिंत छे.
१२२. अली सखी! एवा दर्पणने ते शुं करवुं? –के जेमां आत्मानुं प्रतिबिंब न देखाय.
मने तो आ जगत बहावरुं प्रतिभासे छे, –के जेने गृहपति घरमां होवा छतां
तेनुं दर्शन नथी थतुं.
१२३. जीवतां ज जेने पांच ईन्द्रियसहित मन मरी गयुं तेने मोकळो–छूटो ज जाणो;
निर्वाणपंथ तेणे प्राप्त करी लीधो.
१२४. हे वत्स! थोडाकाळमां जेनो क्षय थई जाय छे–एवा घणा अक्षरोने तारे शुं करवा
छे? मुनि तो ज्यारे अनक्षर (शब्दातीत–ईन्द्रियातीत) थाय छे त्यारे मोक्षने
पामे छे.
१२५. छ दर्शनना ग्रंथो एकबीजाथी विरुद्ध घणा गरजे छे, ते बधाथी पर, मोक्षनुं जे
एक कारण छे तेने तो विरला ज जाणे छे.
१२६. हे वत्स! तुं सिद्धांत अने पुराणने जाण; तेने जाणतां भ्रांति रहेती नथी. हे
वत्स! आनंदस्वरूपमां जे जामी गया तेने सिद्ध कहेवाय छे.
१२७. आ लोकमां शिव अने शक्तिनो मेळावडो तो पशुओमांय होय छे; पण शिवथी
भिन्न शक्तिवाळा शिवने तो कोई विरला ज ओळखे छे. (लोको तो पशु
वगेरेमांय व्यापक एवा सर्वव्यापी शिवने माने छे, पण एनाथी जुदा पोताना
आत्माने ज शिवस्वरूपे तो विरला–ज्ञानी ज ओळखे छे.)
१२८. जेणे देहथी भिन्न निज परमार्थतत्त्वने जाण्युं नथी, ते आंधळो बीजा आंधळाने
मुक्ति–पंथ कई रीते देखाडशे?
१२९. हे योगी! तुं देहथी भिन्न आत्माने ध्याव. जो देहने तुं पोतानो मानीश तो तुं
निर्वाण नहीं पाम.
१३०. सुगुरुनी महान छत्रछाया पामीने पण हे जीव! तुं सकळ काळ संतापने ज
पाम्यो. परमात्मा निजदेहमां वसता होवा छतां तें पत्थर पर पाणी ढोळ्युं.
१३१. हे वत्स! सुगुरुनो संग छोडीने तुं सदाकाळ झंखना–व्यग्रता न कर. परमात्मा
निजदेहमां वसता होवा छतां तुं शून्य मठने केम सेवे छे?