: २४ : आत्मधर्म : चैत्र : २५०१
* भगवान महावीरनुं धर्मचक्र सम्यक्त्वनी धरी उपर फरे छे *
[सम्यक्त्व–लेखमाळा: लेखांक–१२]
सम्यक्त्व माटे मुमुक्षुजीवनुं जीवन केवुं होय! सम्यक्त्वनी
भावना वखते अंदर केवा भावो होय? ने सम्यक्त्व पछी केवुं सुंदर
जीवन होय? ते संबंधी आ लेखमाळामां रजु थतुं स्वानुभवरसझरतुं
वर्णन कोईपण जिज्ञासुओने खुब ज गमी जाय तेवुं छे.
अहो! वीतरागी संतोए बतावेला आत्महितनो वीतरागी सत्
मार्ग! अने ते मार्गेर् जनारा संतोनी विचारधारा तथा रहेणी–करणी ते तो
कोई अद्भुत ने अलौकिक छे! परंतु ते मार्ग पामवानी ज्यां खरी
जिज्ञासा जागे छे त्यां पण जीवना भावोमां कोई आश्चर्यकारी पलटो थवा
मांडे छे; ने मुमुक्षुजीवनमां नवा ज भावो वेदाय छे.
सम्यग्दर्शनने लगता प्रयत्ननी शरूआत करतां पहेलांं जिज्ञासुने
ए प्रश्न ऊठे छे के–सम्यग्दर्शन एटले शुं?
पोताना शुद्धआत्मस्वरूपनी अनुभूतिसहित प्रतीति ते
सम्यग्दर्शन छे.
वळी तरत एवो प्रश्न ऊठे छे के आवुं सम्यग्दर्शन केम प्राप्त थाय?
प्रथम तो जे जीवना अंतरमां साची मुमुक्षुता जागे छे ते जीव,
ज्ञानानंदस्वरूप आत्मानो अगाध महिमा ज्ञानी पासेथी जाणीने लक्षगत
करे छे, ने पछी वारंवार अभ्यास वडे परिणामने तेमां जोडीने, अंतर्मुख
उपयोग वडे तेना अनुभव सहित तेनुं साचुं दर्शन करे छे,–ते सम्यग्दर्शन
छे.
आ सम्यग्दर्शन मोक्षनगरीमां जवा माटेनुं झडपी वाहन छे; कर्मरजना