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भावनामां ज्ञान अने रागनी भिन्नतानो अभ्यास थतो जाय छे. चारे
पडखेथी ते ज्ञान अने रागनी भिन्नता देखतो जाय छे. राग अने ज्ञाननी
भिन्नता तेना वेदनमां आवती जाय छे ने अंदर एवी चोट तेने लागी
जाय छे के रागादिभावो ज्ञानथी विरुद्ध भासे छे, ते रागादिमां क््यांय तेने
जराय शांति लागती नथी...रागनी अशांतिमांथी कोईपण प्रकारे बहार
नीकळवा मथे छे...ने चैतन्यनी शांतिने खूब खूब झंखे छे. हजी विकल्प
रहेता होवा छतां, विकल्पमां ते नथी झुलतो, ते तो ज्ञानरसना झुले झुले
छे; ने स्ववस्तुने पकडीने, ज्ञानने निर्विकल्प करी नांखे छे; त्यारे आखा
जगतनो संबंध छूटीने आत्मा विश्वनी उपर तरे छे. जगतथी जुदो पोते
पोतामां रही जाय छे. –आनुं नाम अनुभूति; आनुं नाम सम्यग्दर्शन!
नथी; तेनाथी जुदी जातनो ज्ञानस्वभावी हुं छुं.
तेमां एकत्वबुद्धि ज्ञानीने केम होय? ज्ञाननी रागथी भिन्नता वेदता
होवाथी ज्ञानी रागने करता नथी. –ज्ञानीनी आवी ओळखाण द्वारा
जिज्ञासु पोते पोताना भावोमां पण ज्ञान अने रागने जुदा पाडीने
भेदज्ञान करतो जाय छे, अने तेने आत्मानुं स्वरूप केवळ (एकलुं) ज्ञान
अने आनंदमय ज भासे छे, चैतन्यवस्तुना वेदनमां राग क्यांथी होय?
आवो वास्तविक निर्णय कर्यो त्यां हवे राग अने ज्ञानने भिन्न थतां वार
केटली? अंदरमां निर्विकल्प थईने चैतन्यवस्तुमां उपयोग जोडतां, राग
वगरनुं अतीन्द्रिय आनंदमय परिणमन थई जाय छे...अहा! आत्मा
अपूर्वभावरूप थई जाय छे.
छे. ज्ञान–दर्शन–आनंद–प्रभुता वगेरे अनंत शक्तिना पिंडरूप मारुं
शुद्धतत्त्व छे. मारा ज्ञान–दर्शन