: २८ : आत्मधर्म : चैत्र : २५०१
* उपयोग–लक्षण जीव छे ने ए ज साचुं जीवन छे. *
आदि कोईपण गुणमां राग साथे तन्मयता नथी. एवी अनंती शक्तिना
अभेद एक पिंडरूप चैतन्यमात्र स्वतत्त्व हुं छुं–एम धर्मी श्रद्धामां लईने
अनुभूति करे छे.
अरे, ज्ञान ने आत्मा एवा गुण–गुणी भेदनुं द्वैत पण जे
अनुभूतिमां नथी रहेतुं, ते निर्विकल्प–अनुभूतिनी शांतिनी शी वात!
अनंतगुणनी निर्मळता सहित एकरूप वस्तु अनुभूतिमां प्रकाशे छे.
आम सर्व प्रकारे पोताना स्वरूपनी सन्मुखताना परिणामो
मुमुक्षुने होय छे; अगाध महिमाथी भरेला आत्मस्वरूपनी सन्मुखता
तरफना झुकाव सिवाय, बहिर्मुख बीजो कोई उपाय सम्यग्दर्शन माटे नथी
–नथी–नथी.
ज्ञानी थता पहेलांं अभ्यासनी शरूआतमां जिज्ञासु जीवने एम
लागे छे के अरे, आवा विकल्पो शा माटे! पण पछी विचारने अंदर
लंबावीने शोधतां तेने ख्याल आवे छे के अहा, आ विकल्प वखते पण
विकल्पने जाणनारुं मारुं ‘ज्ञान’ विकल्पथी जुदुं काम करी ज रह्युं छे; ते
ज्ञान, ‘विकल्प हुं नथी, ज्ञान हुं छुं’ एम वहेंचणी करे छे. एटले तेने
विकल्पो पण ज्ञानस्वभावना रसना जोरे धीमे धीमे घसाता जाय छे, अने
छेवटे ज्ञाननो झणझणाट करती एवी घडी आवी जाय छे के (समय
मात्रमां) एक ज घडाके विकल्पने ओळंगी जईने उपयोगनुं पोताना
शुद्धस्वरूपमां मिलन थई जाय छे. बस! आ छे अनुभव–दर्शन! आ छे
सम्यक्त्वनी अपूर्व घडी! आ छे मोक्षसुखनो प्रारंभ!
आवो अनुभव कोण करे?
–आत्मा पोते ज कर्तापणे पोतानी सम्यक्त्वादि पर्यायने करे छे,
एवो तेनो कर्तास्वभाव छे. अनुभवमां विकल्प वगरनी निर्मळ पर्याय
पण सहजपणे प्रगटी जाय छे–तेवो आत्मानो पर्यायस्वभाव छे, एटले
तेनो कर्ता तो आत्मा पोते ज छे. –हा, अनुभूति करवा टाणे जीवने “हुं
निर्मळ पर्याय करुं ने निर्मळपर्याय मारु कार्य ” –एवो कर्ता–कर्मभेदनो
कोई विकल्प के विचार होतो नथी; त्यारे तो कर्ता–कर्म–क्रियाना भेद छूटीने
आत्मा पोताना एकत्वमां ज झूमे छे...सत्मात्र अनुभूति होवा छतां तेमां
अनंतगुणनी गंभीरता भरी छे; अनंतगुणनो स्वाद एकी साथे तेमां
वेदाय छे. आहा! केवो कल्पनातीत स्वाद हशे ते!! वाह! ए