Atmadharma magazine - Ank 378
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र : २५०१ आत्मधर्म : २९ :
* ए जीवजो, जीवडावजो प्रभु वीरनो उपदेश छे *
तो स्वानुभवी संतो ज जाणे छे, –वाणीमां आवी शकतो नथी. वेदनमां
स्पष्ट आवे छे, पण वाणीगम्य थतो नथी.–
“जे स्वरूप सर्वज्ञे दीठुं ज्ञानमां,
कही शक््या नहीं ते पण श्री भगवान जो;
तेह स्वरूपने अन्य वाणी तो शुं कहे?
अनुभवगोचर मात्र रह्युं ते ज्ञान जो...”
आवुं आत्मस्वरूप धर्मीजीवने चोथा गुणस्थाने ज्ञानमां
अनुभवगोचर (स्वसंवेदन–प्रत्यक्ष) थई गयुं छे; वाणीमां जे न आवी
शक््युं ते तेना वेदनमां आवी गयुं छे. वाह रे वाह! धन्य ए दशा! धन्य
ए जीव!!! चैतन्यना अगाध चमत्कारनो तेणे साक्षात्कार करी लीधो छे....
एणे पोताना अंतरमां परमात्मानुं दर्शन करी लीधुं छे.
“आत्मा केवो हशे!–के आवो हशे! ” तेम नहीं, परंतु “हुं आवो
ज छुं” एम प्रत्यक्ष अनुभूतिपूर्वक तेनुं ज्ञान निःशंक थई जाय छे. तेनुं
स्वानुभवप्रमाण एवुं बळवान छे के बीजा कोई प्रमाणने शोधवा जवुं
पडतुं नथी. साधारण जीवो जगतना कोई देखे के न देखे,–पोते तो पोतानी
अनुभूतिने साक्षात् जाणे छे; माटे–
सम्यक्त्ववंत जीवो निःशंकित, तेथी छे निर्भय अहो!
जेणे अनुभवज्ञानवडे पोताना शुद्धस्वरूपनो अपरंपार महिमा
जाण्यो तेनुं चित्त हवे जगतना कोई पदार्थ प्रत्ये ललचातुं नथी, अरे,
आराधकभावमां वच्चे कदाचित् सर्वोत्कृष्ट पुण्यना संयोगो आवे तोपण
तेमां तेने कांई सुंदरता लागती नथी के तेने लीधे आत्मानी किंचित् महत्ता
लागती नथी. तेने पोताना स्वतत्त्वनुं जोर ज एवा प्रकारनुं होय छे के
बीजे बधेथी तेने निरंतर उदासीनता ज वर्ते छे. अहा, चैतन्यस्वरूपने
चेतनारी मारी ज्ञानचेतना रागने करवा केम जाय! अने जुदी परवस्तुने
करवानी तो वात ज शी? पर पदार्थ मारी नजीक हो या दूर हो, पण मारुं
स्वतत्त्व तो तेनाथी हंमेशा निराळुं ज छे; ते पोते