: चैत्र : २५०१ आत्मधर्म : ३१ :
* सम्यक्त्वादि भाववडे चैतन्यजीवन जीववानो भगवाननो उपदेश छे. *
* अध्यात्मरस घोलन *
[पाहुड दोहा] पानुं २३ थी चालु
१३२. हे जीव! भुवनतळमां तुं एवा योगीने तारा मित्र कर, –के जेनुं
चित्त रागना कलकलाटथी, छ रसथी ने पांच रूपथी रंजित न होय.
१३३. सघळा विकल्पोने तोडीने मनने आत्मामां स्थिर कर; त्यां तने
निरंतर सुख मळशे, अने तुं संसारने शीघ्र तरी जईश.
१३४. अरे जीव! जिनवरने तारा मनमां स्थाप, विषय–कषायने छोड;
सिद्धिमहापुरीमां प्रवेश कर, अने दुःखोने पाणीमां डुबाडीने
तिलांजलि दे.
१३५. मुंड मुंडाववावाळाओमां हे श्रेष्ठ मुंडका! तें शिर तो मूंडयुं, पण
चित्तने न मूंडयुं. जेणे चित्तनुं मुंडन कर्युं तेणे संसारनुं खंडन कर्युं.
१३६. सर्वांगमां जे सुस्थित छे ते धर्मात्माने पाप शुं करशे ? तेमज जे
परमार्थना ईच्छुक छे ते सज्जनने पुण्यनुं पण शुं काम छे?
१३७. जेओ गमनागमनथी रहित छे ने त्रणलोकमां प्रधान छे ते देवनी
गरवी गंगा सूज्ञ पुरुषोने सम्यग्ज्ञान प्रगट करनारी छे.
१३८. पुण्यथी विभव मळे छे, विभवथी मद मळे छे, मदथी मतिमोह
थाय छे, अने मतिमोहथी नरक थाय छे. –एवा पुण्य अमने न हो
(अहीं अज्ञानीना पुण्यनी वात छे.)
१३९. हुं ज्यां–ज्यां जोउं त्यां सर्वत्र आत्मा ज देखाय छे, –तो पछी हुं
कोनी समाधि करुं ने कोने पूजुं? छूत–अछूत कहीने कोने तरछोडुं?
हरख के कलेश कोनी साथे करुं? ने सन्मान कोनुं करुं?
आवी भावनारूप निर्मळ जळ वडे आत्मानो अभिषेक करवो; –के
ज्यां ज्यां जोउं त्यां कंई पण मारुं नथी; हुं कोईनो नथी, ने कोई
मारुं नथी. (आवी तत्त्वभावना वडे क्रोध शांत थई जाय छे.)