: ३२ : आत्मधर्म : चैत्र : २५०१
* अमे पण आनंदपूर्वक आपना ज मार्गे शीवपुरीमां आवी रह्या छीए. *
१४१. हे जिनवर! ज्यां सुधी देहमां रहेला जिनने न जाण्या त्यां सुधी
तने नमस्कार कर्या; पण जो देहमां ज रहेला जिनने जाणी लीधा
तो पछी कोण कोने नमे?
१४२. शुभाशुभजनक कर्मनो अकर्ता थईने जीवना अंतरमां
आत्मस्वरूपनी सिद्धि ज्यांसुधी प्रगटती नथी त्यांसुधी तेने संकल्प
–विकल्प रहे छे.
१४३ (१) हे जीव! लोको तने हठीलो–हठीलो कहे छे तो भले कहो, पण
हे हठी! तुं क्षोभ करीश मा. (अर्थात् लोको हठीलो कहे तेथी तुं
तारा मार्गने छोडीश मा.) तुं मोहने उखेडीने सिद्धि–महापुरीमां
चाल्यो जाजे.
(२) घेला लोको तने घेलो–गांडो कहे तो तेथी तुं क्षुब्ध थईश मा.
लोको गमे तेम बोले, तुं तो मोहने उखेडीने महान सिद्धिनगरीमां
प्रवेश करजे.
१४४. जीवोनी अहिंसा करो अने अन्यने जरा पण अन्याय न करो,
–आटलुं चित्तमां लखी ल्यो ने मनमां धारण करी ल्यो–बस, पछी
तमे निश्चितपणे पग लंबावीने सूई जाओ.
१४५. आडा–अवळा बहु बडबडाटनुं शुं काम छे?–देह ते आत्मा नथी;
देहथी भिन्न ज्ञानमय ते ज तुं आत्मा छो;–तेने हे जीव! तुं देख!
१४६. भले शास्त्रना पोथा पढे, पण मन ज जेनुं अशुद्ध छे तेने मोक्ष
केवो?–एम तो हरणनो शिकार करनारो पारधी पण हरणनी सामे
नमे छे. (जेम भावशुद्धि वगरनुं ते नमन, साचुं नमन नथी, तेम
भावशुद्धि वगरनुं शास्त्रभणतर मोक्षनुं कारण थतुं नथी. माटे हे
जीव! तुं भावशुद्धि कर.)
१४७. जेम घणुं पाणी वलोववाथी कांई हाथ चीकणा थता नथी, तेम दया
(वीतरागभाव) वगरनो धर्म ज्ञानीओए क्यांय देख्यो नथी.
१४८. जेम लोढानो संग करवाथी अग्नि पण मोटामोटा घण वडे पिटाय छे,
तेम दुष्ट जनोना संगथी भलापुरुषोनां गुणो पण नष्ट थई जाय छे.
१४९. अग्नि पण शंखना धवलत्वने नष्ट करी शकतो नथी; पण जो ते
पोते छारी के लीलफूग साथे मळी जाय तो तेनुं धवलपणुं मटी जाय
छे, एमां संदेह न करो. (माटे कुसंगति न करवी.)