: चैत्र : २५०१ आत्मधर्म : ३३ :
१५०. शंखना पेटमां रहेला मुक्ताफळ–मोतीना कारणे तेनी एवी हालत
थाय छे के माछीमार धीवर तेनुं गळुं फाडीने ते मोती बहार काढे
छे. (परीग्रहथी जीव दुःखी थाय छे.)
१५१. गुणरत्ननिधि (अर्थात् समुद्र) नो संग छोडवाथी शंखना केवा हाल
थाय छे? –ते बजारमां वेचाय छे ने पछी कोईना मोढेथी फूंकाय छे;
तेमां संदेह नथी. (गुणीजननो संग छोडवाथी आवा बेहाल थाय
छे.)
१५२. हे हताश मधुकर! तें कल्पवृक्षनी मंजरीनो सुगंधी रस चाख्यो, ने
हवे गंध वगरना घास पलाश उपर तुं भमतो फरे छे!–अरे, आम
करतां तारुं हैयुं फाटी केम न गयुं? ने तुं मरी केम न गयो?
(अत्यंत मधुर चैतन्यरस चाख्या पछी, बीजा नीरस विषयोमां
उपयोग भमे तेमां ज्ञानीने मरण जेवुं दुःख लागे छे.)
१५३–१५४. मूंड मुंडावी, उपदेश लीधो, धर्मनी आशा वधी, तेमज
कुटुंब छोड्युं ने परनी आशा पण छोडी, –आटलुं करवा छतां जे
नग्नत्वथी गर्वित छे अने (त्रिगुप्तिने गणकारतो नथी (–अथवा
वस्त्रधारक धर्मात्माओनो तिरस्कार करे छे), तेणे तो बहारनो के
अंतरनो एक्केय ग्रंथ–परिग्रह छोड्यो नथी.
१५५. अरे, आ मनरूपी हाथीने विंध्य तरफ जतां रोको, नहितर ते
शीलवनने तोडी नांखशे ने जीवने संसारमां पाडशे.
१५६. जे भणेला छे, जे पंडित छे अने जे मानमर्यादावाळा छे ते पण
महिलाओना पगे पडीने घंटीना पडनी जेम भमे छे.
१५७. रे विषयांध! त्यांसुधी ज तुं विषयोने मुठ्ठीथी स्पर्शी ले (बाचका
भरी ले) के ज्यांसुधी जीह्वालोलुपी शंखनी जेम तारुं शरीर सडी न
जाय! (हे मूर्ख! क्षणभंगुर विषयोमां कां राच?–ए तो क्षणमां
सडी जशे.)
१५८. वनमां ऊंटना प्रवेशनी जेम तुं तडातड पांदडा तोडे छे, पण मोहित
थयेलो तुं ए नथी जाणतो के कोण तोडे छे, ने कोण तूटे छे?
(वनस्पतिमां पण तारा जेवो जीव छे–एम तुं जाण ने तेनी हिंसा
न कर.)
१५९. पांदडुं पाणी, दर्भ अने तल ए बधाने तुं सवर्ण (वर्णसहित–
अचेतन) जाण; अने जो मोक्षमां जवुं होय तो तेनुं कारण कंईक
बीजुं ज छे,–तेने जाण. (पांदडां वगेरे वडे देवने पूजवाथी मुक्ति
नथी मळती, मुक्तिनुं कारण बीजुं ज छे.)