Atmadharma magazine - Ank 378
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: ३४ : आत्मधर्म : चैत्र : २५०१
भगवानश्री यतिवृषभ आचार्यरचित ‘त्रिलोकप्रज्ञप्ति’ नामना
प्राचीन महान ग्रंथमां ‘सिद्धलोकप्रज्ञप्ति’ नामना अधिकारमां
‘सिद्धत्वना हेतुभूत भावना’ नुं आनंदकारी वर्णन गाथा १८ थी ६५
सुधी ४८ गाथा द्वारा कर्युं छे. सिद्धत्वना हेतुभूत आ उत्तम भावना
वांचीने गुरुदेवने घणो प्रमोद थयो हतो, ने प्रवचनमां श्रोताजनो समक्ष
पण तेनुं वर्णन कर्युं हतुं, –जे सांभळीने सौने हर्षोल्लास थयो हतो.
अहा,–सिद्धत्वना हेतुभूत भावनाथी कोने आनंद न थाय!–तेथी ते
आनंदकारी भावना अहीं आपीए छीए.
आ शास्त्रकर्ता श्री यतिवृषभ आचार्य धवला–जयधवलाना
टीकाकारथी पर प्राचीन छे, अने भावना–अधिकारमां आवेली घणी
खरी गाथाओ भगवानश्री कुंदकुंदाचार्यदेवना समयसार–प्रवचनसार
वगेरे शास्त्रोनी गाथाओने लगभग मळती आवे छे,–जाणे के तेमना
शास्त्रोनुं दोहन करीने ज आ भावना–अधिकार रचायो होय! एवुं ज
लागे छे. स्व. प्रो. हीरालालजी जैन आ संबंधमां लखे छे के–‘आ
अन्तिम अधिकारमां वर्णवेल सिद्धोनुं वर्णन अने आत्मचिन्तननो
उपाय (–शुद्धात्मभावना) ते जैनविचारधारानी प्राचीन संपत्ति छे. ’
चालो, आपणे पण आपणा आत्माने सिद्धत्वना हेतुभूत आ
भावनामां जोडीए:–

जेम चिरसंचित इंधनने पवनथी प्रज्वलित अग्नि शीघ्र ज जलावी दे छे, तेम
घणा कर्मरूपी इंधनने शुद्धात्माना ध्यानरूपी अग्नि क्षणमात्रमां जलावी दे छे.
जे जीव दर्शनमोह अने चारित्रमोहने नष्ट करीने, विषयोथी विरक्त थयो थको,
मनने रोकीने आत्मस्वभावमां स्थिर थाय छे ते मोक्षसुखने प्राप्त करे छे.
• जेने राग–द्वेष–मोह तथा योगपरिकर्म नथी तेने शुभाशुभने भस्म करनार
ध्यानमय अग्नि उत्पन्न थाय छे.