Atmadharma magazine - Ank 378
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र : २५०१ आत्मधर्म : ३५ :
• शुद्धस्वभावथी सहित साधुने दर्शन–ज्ञानथी परिपूर्ण ध्यान छे ते निर्जरानुं
कारण थाय छे; अन्य द्रव्योथी संसक्त ध्यान निर्जरानुं कारण थतुं नथी.
• अंतरंग अने बहिरंग सर्वसंगथी रहित, तथा अनन्यमन (अर्थात्–
एकाग्रचित्त) थईने जे पोताना चैतन्यस्वभावथी आत्माने जाणे–देखे छे ते
जीव आत्मिकचारित्रनुं आचरण करनार छे.
• ज्ञान, दर्शन अने चारित्रमां भावना करवी जोईए; अने ते (ज्ञान–दर्शन–
चारित्र) त्रणे आत्मस्वरूप छे, तेथी हे भव्य! तुं आत्मामां भावना कर.
• हुं निश्चयथी सदा एक, शुद्ध, दर्शन–ज्ञानात्मक अने अरूपी छुं; अन्य कंई
परमाणु मात्र पण मारुं नथी.
मोह मारो जरा पण नथी; हुं एक ज्ञानदर्शन–उपयोगरूप ज छुं–एम जाणुं छुं;
–आवी भावनाथी युक्त जीव अष्टदुष्ट कर्मोने नष्ट करे छे.
• हुं परपदार्थोनो नथी अने परपदार्थो मारां नथी, हुं तो एकलो ज्ञानस्वरूप ज
छुं; –आ प्रमाणे जे ध्यानमां चिन्तवे छे ते आठकर्मोथी मुक्त थाय छे.
• चित्त शांत थतां ईन्द्रियो शांत थाय छे, अने ईन्द्रियो शांत थतां
आत्मस्वभावमां रति थाय छे; अने तेथी ते जीव स्पष्टपणे–चोक्कसपणे निर्वाणने
पामे छे.
• हुं देह नथी, मन नथी, वाणी नथी, अने तेमनुं कारण पण हुं नथी, –आ
प्रकारनो जे भाव छे ते शाश्वतस्थानने प्राप्त करे छे (अर्थात् आवी भावना जे
भावे छे ते मोक्षने पामे छे).
• देहनी जेम मन अने वाणी पुद्गलद्रव्यात्मक परवस्तु छे, एम उपदेशवामां
आव्युं छे; अने पुद्गलद्रव्य ते पण परमाणुद्रव्योनो पिंड छे.
हुं, नथी पुद्गलमय के नथी में ते पुद्गलोने पिंडरूप कर्या; तेथी हुं देह नथी, के ते
देहनो कर्ता नथी.
• आ प्रमाणे ज्ञानात्मक, दर्शनभूत, अतीन्द्रिय, महाअर्थ, नित्य, निर्मळ अने
नीरालंब शुद्धआत्मानुं चिंतन करवुं जोईए.
• हुं परपदार्थोनो नथी अने परपदार्थो मारां नथी; हुं तो ज्ञानमय एकलो छुं;
–आ प्रमाणे जे ध्यानमां ध्यावे छे ते जीव आत्मानो ध्याता छे.