Atmadharma magazine - Ank 378
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: ३६ : आत्मधर्म : चैत्र : २५०१
[जुओ, आ सिद्धपदना हेतुभूत भावना चाले छे:
आ भावनाथी मोक्षसुख पमाय छे.]
• आ प्रमाणे जाणीने जे विशुद्धआत्मा उत्कृष्ट आत्माने ध्यावे छे ते अनुपम
अपार अतीन्द्रिय (अनंत चतुष्टयात्मक) सुखने पामे छे.
हुं परपदार्थोनो नथी अने परपदार्थो मारां नथी, आ जगतमां मारुं कोई पण
नथी, –आ प्रमाणे जे भावना भावे छे ते संपूर्ण कल्याणने पामे छे.
आ ऊर्ध्व–अधो के मध्य त्रणलोकमां कोईपण परपदार्थ मारो नथी, आ जगतमां
कंईपण मारुं नथी–आवी भावनाथी युक्त जीव अक्षय सुखने पामे छे.
• जे जीव मद–मान–मायाथी रहित तेम ज लोभथी रहित, अने निर्मळ–
स्वभावथी युक्त थाय छे ते अक्षयस्थानने पामे छे.
• देहादिकमां जेने परमाणुमात्र पण मूर्छा छे ते जीव, भले सर्वआगमनो धारी
होय तोपण स्वकीय–समयने ते जाणतो नथी.
• माटे मोक्षना अभिलाषी जीवोए देहमां जरापण राग न करवो; देहथी भिन्न
ईन्द्रियातीत आत्मानुं ध्यान करवुं.
देहमां स्थित, देहथी जराक न्यून, देहथी रहित, शुद्ध, देहाकार अने ईन्द्रियातीत
आत्मा ध्यातव्य छे.
• जेना ध्यानमां ज्ञानवडे निजात्मा जो नथी भासतो तो तेने ध्यान नथी, परंतु
प्रमाद अथवा मोहमूर्छा ज छे–एम जाणवुं.
• मीणथी रहित बीबाना अंदरना आकाश जेवा आकारवाळा, रत्नत्रयादि
गुणोथी युक्त, अविनश्वर अने जीवघनदेशरूप एवा निजात्मानुं ध्यान करवुं
जोईए.
जे साधु नित्य उद्योगशील (उपयुक्त) थईने आ आत्मभावनानुं आचरण करे
छे ते अल्पकाळमां ज सर्व दुःखथी मुक्त थाय छे.
• कर्म–नोकर्ममां ‘आ हुं छुं, अने हुं–आत्मा कर्म– नोकर्मरूप छुं’ –आ प्रकारनी
बुद्धिवडे प्राणी घोर संसारमां घूमे छे.
• जे मोहकर्मनो क्षय करीने, तथा विषयोथी विरक्त थईने अने मनने रोकीने
स्वभावमां समवस्थित थाय छे ते जीव कर्मबंधनरूप सांकळथी छूटी जाय छे.