Atmadharma magazine - Ank 378
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र : २५०१ आत्मधर्म : ३७ :
जे प्रकृति–स्थिति–अनुभाग अने प्रदेशबंधथी रहित आत्मा छे ते ज हुं छुं–एम
चिन्तन करवुं जोईए तथा तेमां ज स्थिरभाव करवो जोईए.
जे केवळज्ञानस्वभावी छे, केवळदर्शनस्वभावी छे, सुखमय छे अने केवळवीर्य–
स्वभावी छे–ते हुं छुं–एम ज्ञानी चिन्तवे छे.
• जे जीव सर्वसंगथी रहित थईने पोताना आत्माने आत्माद्वारा ध्यावे छे ते
अल्पकाळमां सर्वदुःखथी छूटकारो पामे छे.
जे भयानक संसाररूपी महासमुद्रमांथी नीकळवा ईच्छे छे ते आ प्रमाणे जाणीने
शुद्धआत्मानुं ध्यान करे छे.
• प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, प्रतिहरण, धारणा, निवृत्ति, निन्दन गर्हण अने शुद्धि–
ए बधायनी प्राप्ति निजात्मभावना वडे थाय छे.
दर्शनमोहग्रंथिने नष्ट करीने जे श्रमण राग–द्वेषनो क्षय करतो थको सुख–दुःखमां
समभावी थाय छे ते अक्षय सुखने प्राप्त करे छे.
• देह अने धनमां आ ‘हुं’ अने ‘आ मारुं’ एवा ममत्वने जे छोडतो नथी ते
मूर्ख–अज्ञानी जीव दुष्ट–अष्टकर्मोथी बंधाय छे.
पुण्यथी विभव, विभवथी मद, मदथी मतिमोह अने मतिमोहथी पाप थाय छे,
–माटे पुण्यने पण छोडवा जोईए.
जे परमार्थथी बाह्य छे ते जीव संसारगमनना अने मोक्षना हेतुने नहि जाणतो
थको अज्ञानथी पुण्यनी ईच्छा करे छे.
पुण्य अने पापमां कोई भेद नथी–आम जे नथी मानतो ते मोहथी युक्त थयो
थको घोर अने अपार संसारमां भमे छे.
मिथ्यात्व, अज्ञान, पाप अने पुण्य–तेमनो त्रणे प्रकारे त्याग करीने योगीओए
निश्चयथी शुद्धआत्मानुं ध्यान करवुं जोईए.
• जीव परिणामस्वभावरूप छे, ते ज्यारे शुभ अथवा अशुभ परिणामरूपे
परिणमे छे त्यारे शुभ अथवा अशुभ थाय छे, अने ज्यारे शुद्धपरिणामरूपे
परिणमे छे. त्यारे शुद्ध थाय छे.
धर्मरूपे परिणमेलो आत्मा जो शुद्धउपयोगयुक्त होय तो निर्वाणसुखने पामे छे,
अने जो शुभोपयोगथी युक्त होय तो स्वर्गसुखने पामे छे.