: चैत्र : २५०१ आत्मधर्म : ३७ :
• जे प्रकृति–स्थिति–अनुभाग अने प्रदेशबंधथी रहित आत्मा छे ते ज हुं छुं–एम
चिन्तन करवुं जोईए तथा तेमां ज स्थिरभाव करवो जोईए.
• जे केवळज्ञानस्वभावी छे, केवळदर्शनस्वभावी छे, सुखमय छे अने केवळवीर्य–
स्वभावी छे–ते हुं छुं–एम ज्ञानी चिन्तवे छे.
• जे जीव सर्वसंगथी रहित थईने पोताना आत्माने आत्माद्वारा ध्यावे छे ते
अल्पकाळमां सर्वदुःखथी छूटकारो पामे छे.
• जे भयानक संसाररूपी महासमुद्रमांथी नीकळवा ईच्छे छे ते आ प्रमाणे जाणीने
शुद्धआत्मानुं ध्यान करे छे.
• प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, प्रतिहरण, धारणा, निवृत्ति, निन्दन गर्हण अने शुद्धि–
ए बधायनी प्राप्ति निजात्मभावना वडे थाय छे.
• दर्शनमोहग्रंथिने नष्ट करीने जे श्रमण राग–द्वेषनो क्षय करतो थको सुख–दुःखमां
समभावी थाय छे ते अक्षय सुखने प्राप्त करे छे.
• देह अने धनमां आ ‘हुं’ अने ‘आ मारुं’ एवा ममत्वने जे छोडतो नथी ते
मूर्ख–अज्ञानी जीव दुष्ट–अष्टकर्मोथी बंधाय छे.
• पुण्यथी विभव, विभवथी मद, मदथी मतिमोह अने मतिमोहथी पाप थाय छे,
–माटे पुण्यने पण छोडवा जोईए.
• जे परमार्थथी बाह्य छे ते जीव संसारगमनना अने मोक्षना हेतुने नहि जाणतो
थको अज्ञानथी पुण्यनी ईच्छा करे छे.
• पुण्य अने पापमां कोई भेद नथी–आम जे नथी मानतो ते मोहथी युक्त थयो
थको घोर अने अपार संसारमां भमे छे.
• मिथ्यात्व, अज्ञान, पाप अने पुण्य–तेमनो त्रणे प्रकारे त्याग करीने योगीओए
निश्चयथी शुद्धआत्मानुं ध्यान करवुं जोईए.
• जीव परिणामस्वभावरूप छे, ते ज्यारे शुभ अथवा अशुभ परिणामरूपे
परिणमे छे त्यारे शुभ अथवा अशुभ थाय छे, अने ज्यारे शुद्धपरिणामरूपे
परिणमे छे. त्यारे शुद्ध थाय छे.
• धर्मरूपे परिणमेलो आत्मा जो शुद्धउपयोगयुक्त होय तो निर्वाणसुखने पामे छे,
अने जो शुभोपयोगथी युक्त होय तो स्वर्गसुखने पामे छे.