
पण श्रावकधर्मनुं पालन थई शके छे. माटे हे गजराज! तमे श्रावकधर्मने अंगीकार करो.
मुनिधर्मने अंगीकार करत; आम मुनिधर्मनी भावना सहित तेणे श्रावकधर्म अंगीकार
कर्यो; एटले मुनिराजना चरणोमां नमस्कार करीने तेणे पांच अणुव्रत धारण कर्या....ते
श्रावक बन्यो.
लाग्यो. हाथीनी आवी धर्मचेष्टा देखीने श्रावको बहु राजी थया; अने ज्यारे मुनिराजे
प्रसिद्ध कर्युं के–आ हाथीनो जीव आत्मानी उन्नति करतो–करतो भरत क्षेत्रमां २३ मां
तीर्थंकर थशे, –त्यारे तो सौना हर्षनो पार न रह्यो; हाथीने धर्मात्मा जाणीने घणा
प्रेमथी श्रावको तेने निर्दोष आहार देवा लाग्या.
यात्रा करवा संघ जाय छे. अरविंद मुनिराज पण साथे विहार करवा लाग्या. त्यारे हाथी
पण अत्यंत विनयपूर्वक पोताना गुरुने वोळाववा माटे दूर–दूर सुधी पाछळ गयो....
अंते फरीफरीने मुनिराजने नमस्कार करीने गदगदभावे पोताना वनमां पाछो आव्यो.
त्रसहिंसा थाय तेवो खोराक खातो नथी; शांतभावथी रहे छे, ने सुकाई गयेला
घासपान खाय छे; कोईवार उपवास पण करे छे. चालती वखते पग जोई जोईने मूके
छे. हाथिणीनो संग तेणे छोडी दीधो छे. मोटा शरीरने लीधे बीजा जीवोने दुःख न थाय
–ते माटे शरीरने बहु हलावतो नथी, वनना प्राणीओ साथे शांतिथी रहे छे ने गुरुना
उपकारने वारंवार याद करे छे. हाथीनी आवी शांत चेष्टा देखीने बीजा हाथीओ तेनी
सेवा करे छे; वनना वांदरा अने बीजा पशुओ पण तेना उपर प्रेम राखे छे ने सुकां
घासपान लावीने तेने खवडावे छे.