Atmadharma magazine - Ank 378
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र : २५०१ आत्मधर्म : ५१:
* धर्मनी वृद्धि करनारा वर्द्धमानदेव! आम अंतरमां बिराजे छे *
४६. द्रव्य तरफ रुचि थई त्यां आराधकपणुं थयुं, ते आराधकपणानुं
कारण थाय एवो ज आत्मानो स्वभाव छे; विराधकपणानुं कारण
थाय एवो आत्मानो स्वभाव नथी.
४७. हे वीर! तारो मार्ग तो अफर छे...तारा मार्गेर् चडयो ते पाछो फरे
नहीं; आराधना पूरी करीने मोक्ष लीधे छूटको.
४८. पोताना स्वभावथी देवामां आवतो जे भाव (–क््यो भाव? –के
सम्यग्दर्शनादि निर्मळभाव); तेने पोते ल्ये एवी संप्रदानशक्ति
आत्मामां छे.
४९. आत्माथी शुं देवामां आवे छे? –शुं आत्मा परद्रव्य आपे छे?
–ना; आत्मा विकार आपे छे? –ना; विकार कांई आत्मस्वभावमां
भर्यो नथी के ते विकार आपे. स्वभावसन्मुख थतां आत्मा पोते
पोताने निर्मळपर्याय आपे छे, ने पोते ज पात्र थईने ते ल्ये छे.
(विशेष आवता अंके)
कैसे भूलें याद आपकी....
[श्री रूपेन्द्र जैन (बयाना) ना काव्यना आधारे: ब्र. ह. जैन]
जैनधर्मका अनुपम झंडा भारतमें फहराया है,
निजवैभवका तत्त्व सभीको, महावीर! बतलाया है.
कैसे भूलें याद आपकी, तुमने हमें जगाया है,
विषयभोगमें मस्त पडे हम, तुमने ज्ञान कराया है.
वीतराग–सर्वज्ञ बनकर पावन पथ बतलाया है,
निजातमकी दिव्यशक्तिको, खोल खोल समझाया है.
राग–द्वेषके ऊपर उठकर, समताभाव सिखाया है,
आत्मधर्मका अद्भुत चेतन सत्यरूप दिखलाया है.
कैसे भूलें याद आपकी, तुमने हमें जगाया है.