Atmadharma magazine - Ank 378
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: ५२: आत्मधर्म : चैत्र : २५०१
सद्गुरु साद पाडे छे––
मोक्षपुरीना मारग
आवो......ओ अनजान बटोही
[श्रीगुरु शांतिविभोर प्रवचन करतां करतां ज्यारे आंख बंध
करीने कहे छे के हे जीव! एकवार तो तारी अंदर जो. –ए सांभळतां
श्रोताओने अंतरमांथी केवा झंकार ऊठे छे आप वांचो.](बटोही – मुसाफर)
परसे प्रीति लगाकर अब तक व्यर्थ उमरिया खोई,
चारों गतिमें भटक रहा कयों ओ अनजान बटोही!
परमें खोज रहा जिस सुखको वह है तेरे अंदर,
एकवार तो देख सुखोंका लहरा रहा समुंदर,
बन कर दीन डोलता है कयोंं ओ शिवपुरके वासी,
तू ही स्वयं सिद्ध परमातम अजर अमर अविनाशी.
अब तक मिथ्या भ्रममें पडकर काफी मंजील खोई,
चारों गतिमें भटक रहा कयोंं ओ अनजान बटोही!
क्रियाकांडको धर्म समझकर अब तक समय गमाया,
संक्लेशोंंका सागर झेला सुखको समझ न पाया,
भटक रहा मोहांधकारमें उमर गमाता प्रतिक्षण,
तत्त्वोंकी पैनी छैनीसे काट मोहका बंधन.
राग–द्वेषको मार तुझे बनना होगा निर्मोही,
मोक्षपुरीके मारग आओ ओ अनजान बटोही!
सद्गुरु बुला रहे हैं–तज दे मृगतृष्णाका फेरा,
युगों–युगोंके बाद आज आया है सुखद सबेरा.
मोहनींदको त्याग भेद–विज्ञान हृदयमें धर ले,
सम्यग्दर्शनका दर्शन कर जगसे पार ऊतर ले,
‘काका! ’ व्यर्थ गमाया नरभव अगर घडी यह खोई,
चारों गतिमें भटक रहा कयोंं ओ अनजान बटोही!
मोक्षपुरीके मारग आओ ओ अनजान बटोही!
[कवि – हजारीलाल जैन ‘काका’ पो. सकरार (झांसी) ]