: ५६ : आत्मधर्म : चैत्र : २५०१
भगवान सर्वज्ञ हता, वीतराग हता ने हितोपदेशी हता;
भगवाने हितोपदेशमां शुं कह्युं? जेनाथी आत्मानुं परमहित थाय–तेवो
उपदेश भगवाने कर्यो. भगवान पोते तो सर्वज्ञ–वीतराग थया ने पोताना
आत्मानुं परमहित साधी लीधुं. पछी जे वाणी नीकळी तेमां पण एवा
हितनो ज उपदेश नीकळ्यो के अहो आत्मा! तारो आत्मा पण एक क्षणमां
परिपूर्ण ज्ञान–आनंदथी भरेलो छे; अमे जे अनंत ज्ञान–दर्शन–सुख ने
वीर्य पाम्या ते आत्मानी अंतर शक्तिमांथी ज पाम्या छीए. अमारा ने
तारा आत्माना अंर्तस्वभावमां फेर नथी. आत्मानी क्षणिक अवस्थामां
जे शुभ–अशुभ लागणी छे ते विकृत छे, ते हितनुं कारण नथी; ते शुभ–
अशुभनो अभाव करीने अमे अमारुं पूर्ण हित साध्युं छे, माटे पहेलांं एम
नक्की कर के हुं जे हित प्राप्त करवा मांगुं छुं ते मारा आत्मानी शक्तिमांथी
ज आवशे. क्यांय बहारथी नहि आवे. आम स्वभावसन्मुख थवानो जे
परमहितोपदेश सर्वज्ञ भगवाने आप्यो, तेनाथी ज भगवाननी महत्ता छे.
आद्य स्तुतिकार स्वामी समन्तभद्र कहे छे के हे भगवान! आप
मोक्षमार्गना नेता छो–हितमार्गना प्रणेता छो; कर्मरूपी पर्वतने भेदी
नाखनार छो, ने विश्वना समस्त तत्त्वोना प्रत्यक्षज्ञाता छो. आवा गुणोनी
प्राप्ति माटे आपने वंदन करुं छुं–आवा गुणोवडे ओळखीने आपनी स्तुति
करुं छुं.
–त्यारे जाणे के भगवान तेने पूछे छे: हे भद्र! स्तुतिमां आ
समवसरण, आ देवोनुं आगमन, आकाशमां गमन, आ चामर–छत्र
वगेरे दिव्यवैभव–तेनुं तो तें स्तवन न कर्युं! !
त्यारे समन्तभद्रस्वामी, भगवानने जवाब आपतां कहे छे के हे
नाथ! शुं आ देवोनुं आववुं, आकाशमां चालवुं ने चामरादि वैभव, –तेने
लीधे आप अमारा मनने पूज्य छो? शुं तेने लीधे आपनी महानता
छे?? ना, ना; प्रभो! एवुं तो मायावी–ईन्द्रजाळी पण देखाडी शके. हे
नाथ! अमे तो आपना सर्वज्ञता–वीतरागता वगेरे गुणोने ओळखीने
तेना वडे ज आपनी स्तुति करीए छीए.
देवागम नमोयान चामरादिविभूतयः।
मायाविष्वपि द्रश्यन्ते नातः त्वमसि नो महान्।।
हे नाथ! आ समवसरणनो वैभव, आ देवोनुं आगमन, आ आकाशमां