: चैत्र : २५०१ आत्मधर्म : ५७ :
विहार–एना वडे अमे आपनी महत्ता नथी मानता; –एवुं तो मायावी
देवो पण बतावी शके छे. हे नाथ! अमे तो आपना परम हितोपदेशवडे
आपनी सर्वज्ञता ने वीतरागतानो परीक्षावडे निर्णय करीने तेनाथी ज
आपनी महत्ता मानीए छीए.–
मोक्षमार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्मभूभृताम्।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, वन्दे तद्गुणलब्धये।।
जुओ, आ भगवाननी स्तुति! जेम नदीना प्रवाहमां तरंग ऊठे
तेम ज्ञानीना हृदयमां सम्यग्ज्ञाननो प्रवाह वहे छे. तेमां आ भक्तिरूपी
तरंगो ऊठ्या छे. ज्ञानीनी स्तुति पण जुदी जातनी होय छे. भगवानने
ओळखीने अने भगवाने शुं कह्युं तेनी परीक्षा करीने भगवाननी स्तुति
करे छे, एकला पुण्यनो ठाठ होय तेनी ज्ञानीने महत्ता नथी. अरे! ज्ञानी
धर्मात्मा तो एम विचारे छे के ईन्द्रपद के चक्रवर्ती पद मळे ते पण पुण्यनुं
फळ छे, –रागनुं फळ छे, ने ते वैभवना भोगवटामां तो पापवृत्ति छे, तेमां
क््यांय चैतन्यनुं सुख नथी. ईन्द्रनो वैभव के चक्रवर्तीनो वैभव पूर्वना
पुण्यथी मळ्यो त्यां धर्मीने तेनो आदर नथी–तेनी रुचि नथी. चैतन्यना
अतीन्द्रिय आनंदनो ज आदर छे, तेनी ज मीठास छे. आत्माना आवा
आनंदस्वभावनी सन्मुख थवानो उपदेश भगवाने कर्यो. अत्यारे तो
भगवान वाणी रहित थई गया छे ने सिद्धपदमां बिराजे छे, त्यां क्षणेक्षणे
आनंदनी नवी नवी पर्यायनो अनुभव करे छे. ने तेमणे बतावेला मार्गमां
चालनारा मुमुक्षुजीवो आजे पण आत्मिक आनंदने साधता–साधता
मोक्षना मार्गे चाल्या जाय छे.
–जय महावीर!
‘कर विचार तो पाम’
मुमुक्ष जीवे आत्मस्वरूपनो विचार करवो. विचार करवामां
डरवानुं नथी. विचार वखते जे रागांश छे ते भले दोष छे, पण ते
विचार वखते जे ‘ज्ञान ’ तत्त्वनिर्णयनुं काम करी रह्युं छे–ते दोष
नथी. ते ज्ञानने वस्तुना विचारमां ऊंडे ने ऊंडे लई जतां, रागथी
छूटुं पडीने ते चैतन्यना सत्य स्वरूपने रागथी जुदुं ओळखी लेशे...
ने पहेलांं जे वस्तुनो विचार करतो हतो ते वस्तुने अनुभूतिमां
साक्षात् पामी लेशे. माटे कह्युं के–