Atmadharma magazine - Ank 378
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: ६२ : आत्मधर्म : चैत्र : २५०१
एकाएक मंगल घंटनाद–वाजां–प्रकाश
(सौधर्म ईन्द्र) :–अरे अरे! मारुं आ ईन्द्रासन आज एकाएक केम डोली रह्युं छे?
मारा सिंहासनने कंपावनार आ जगतमां कोण छे? अरे, आ मधुर घंटनाद
एनी मेळे केम वागी रह्या छे? आ दैवी वाजां केम वागी रह्या छे? चारेकोर आ
दिव्यप्रकाशनो झगझगाट केम प्रसरी रह्यो छे? त्रणलोकनुं वातावरण आटलुं
बधुं हर्षमय केम बनी रह्युं छे? जरूर कोईक आश्चर्यकारी घटना बनी छे.
(अवधिज्ञानथी जाणीने पछी–ऊभा थईने बोले छे.)
अहो, आनंद....आनंद...आनंद!
देवो सांभळो! मध्यलोकमां भरतक्षेत्रनी वैशालीनगरीमां त्रिशलादेवी मातानी
कुंखे चोवीसमा तीर्थंकरनो अवतार थई चुक््यो छे. (ए सांभळतां वेंत सौधर्म–
ईन्द्र सहित बधा देव–देवीओ नीचे ऊतरी प्रभुने नमस्कार करे छे.)
(बधा देवो) : –धन्य हो....धन्य हो...! बोलिये महावीर भगवानकी जय हो.
(देवी) : –अहो धन्य अवतार! मध्यलोकमां तीर्थंकरनो अवतार थतां ऊर्ध्वलोकनुं
आपणुं आ स्वर्ग पण उज्जवळ बन्युं.
(देव) : –अरे, नरकना जीवोने पण बेघडी साता थई हशे, ने तीर्थंकरनो महिमा
जाणीने घणा जीवो सम्यक्त्व पामी गया हशे.
(देवी) : –अहा, जे आत्मानो पुण्यवैभव पण आवो अद्भुत, तेमना आत्मवैभवनी
तो शी वात?
(देव) : –अहा, एमना आत्मवैभवनो महिमा समजतां आपणने आपणा आत्मानो
स्वभाव पण समजाई जाय छे.