: ७२ : आत्मधर्म : चैत्र : २५०१
(उपकार–अंजलि)
आखी दुनिया आजे महावीरप्रभुना नामथी गाजी रही छे; भारतभरना
नाना–मोटा सौ जैनो पोतानी बधी शक्तिथी, कळाथी–तन–मन–धनना वैभवथी
महावीरप्रभुना गुणगानमां लागी गया छे. साहित्य तो एटलुं छपाय छे के बधुं
वांचवानी वात तो दूर रही, –एक घरमां ते बधुं समाई पण न शके. चित्र–विचित्र
कार्यक्रमो, प्रदर्शनो वगेरे पण एटला भरचक छे के कोई व्यक्ति ते बधामां भाग लेवामां
पहोंची शके नहि.
–आटलुं आटलुं करवा छतां भगवान महावीरनो महिमा जाणे हजी पूरो थतो
नथी; कंईक बाकी रहेतुं होय तेम अधूरुं–अधूरुं लागे छे.
ऊंडो विचार तो करो.....शुं बाकी रहे छे?
बस एक ज! जे अनुभूतिवडे भगवान महावीर ‘महान वीर’ बन्या तेवी
आत्मअनुभूति करवाथी ज वीरनाथना गुणगान पूरा थाय तेम छे. ए आत्म–
अनुभूतिना मार्गने जेम बने तेम वधु प्रसिद्धि मळे ते ईष्ट छे; एवी अनुभूति ते ज
महा आनंदमय निर्वाणमहोत्सवनो प्रारंभ छे, ए ज प्रभु महावीरनुं फरमान छे.
प्रभुना ए फरमानने बहुमानथी झीलीने, आ चैत्रमासना खास अंक द्वारा
आत्मधर्मना संपादक अने हजारो–लाखो साधर्मी–पाठक–भाई बहेनो, प्रभुने
भावभीनी उपकार अंजलि आपीए छीए. – ब्र. ह. जैन
* आत्मधर्म अंक ३७७ (फागण) मां पांचमा पाने त्रीजी लीटीमां “रागथी भिन्न
चैतन्यने ज जाणतो होवाथी” एम भूलथी छपायेल छे तेने बदले “रागथी भिन्न
चैतन्यने नहि जाणतो होवाथी” –एम सुधारीने वांचवुं.
* आत्मधर्मना आ विशेष अंकने शोभाववा माटे तथा झडपथी समयसर तैयार
करी आपवा माटे अजित प्रेसना मालिक भाईश्री मगनलालजी जैन तथा
स्टाफना सर्वे भाईओने धन्यवाद!