: वैशाख : २५०१ आत्मधर्म : ९ :
र...त्न...त्र...य...नी
आ...रा...ध...ना
महावीरप्रभुए राजगृहीमां विपुलाचल परथी
आत्माना ईष्टस्वभावनो जे उपदेश दीधो ते झीलीने
अनेक जीवो आवा आनंदमय रत्नत्रयने पाम्या....
आपणे पण आजे ए ज उपदेशने पामीने आत्मामां
रत्नत्रय प्रगट करीए. रत्नत्रयना भावोवडे ज
वीरप्रभुनुं धर्मचक्र चाली रह्युं छे ने हजारो वर्ष सुधी
चाल्या करशे.
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी आराधना ते जिनमुद्रा छे, ते वीतरागी जिनमुद्रा
ज मोक्षना कारणरूप छे ने ते पोते सिद्धिसुख छे, मोक्षसुखना कारणरूप जे रत्नत्रय–