: वैशाख : २५०१ आत्मधर्म : ११ :
जराक राग होय छे, पण तेने ते रागनो लोभ नथी, आ राग ठीक छे–एवो लोभ नथी,
रागना फळमां ईन्द्रपद मळशे–एवो लोभ नथी, विदेहक्षेत्रमां अवतार थाय तो सारूं–
एवो पण लोभ नथी; निर्लोभ एवा परमात्मतत्त्वने तेणे जाण्युं छे. सर्व प्रकारना
लोभरहित थईने परमात्मतत्त्वना ध्यानमां लीनताथी मोक्ष थाय छे. मोक्ष प्राप्तिनो
लोभ पण मोक्षने अटकावे छे, तो बीजा लौकिक पदार्थना के रागना लोभनी तो शी
वात? अरे जीव! आवा वीतरागभावरूप आराधना ते मोक्षनुं कारण छे.
मुनिवरोनी मति द्रढ सम्यक्त्ववडे भावित छे, एटले दर्शनशुद्धिनी द्रढतापूर्वक
तेमने ज्ञाननी पण शुद्धता प्रगटी छे, आवा सम्यग्दर्शन अने ज्ञान सहित द्रढचारित्र
होय छे, गमे तेवा परीषह आवे तोपण आत्मध्यानथी डगे नहि,–एवी सम्यग्दर्शन–
ज्ञान–चारित्रनी द्रढ आराधना वडे आत्माने ध्यावतां ध्यावतां तेओ मोक्षपदने साधे छे,
परमात्मपदने पामे छे.
वाह! आराधक जीवोनुं स्वरूप बतावीने आचार्यदेव भव्य जीवोने आवी
आराधनामां जोडे छे. आराधक जीवोनुं वर्णन सांभळतां आराधना प्रत्ये उत्साह अने
भक्ति जागे छे. आ रत्नत्रयनी आराधना ते सर्व उपदेशना सारभूत छे.
महावीरप्रभुए राजगृहीमां विपुलाचल परथी आत्माना ईष्टस्वभावनो जे
उपदेश दीधो ते झीलीने अनेक जीवो आवा आनंदमय रत्नत्रयने पाम्या....आपणे पण
आजे ए ज उपदेशने पामीने आत्मामां रत्नत्रय प्रगट करीए. रत्नत्रयना भावोवडे ज
वीरप्रभुनुं धर्मचक्र चाली रह्युं छे ने हजारो वर्ष सुधी चाल्या करशे.
जय महावीर.....जय रत्नत्रय....जयधर्मचक्र.
सुखनो स्वाद
खाखरानी खीसकोली साकरनो स्वाद क्यांथी जाणे?
तेम ईन्द्रियज्ञानमां ज लुब्ध प्राणी अतीन्द्रियसुखना स्वादने
क््यांथी जाणे? जेणे ज्ञानने अंतरमां वाळीने अतीन्द्रिय
वस्तुने कदी लक्षगत करी नथी तेने ए अतीन्द्रियवस्तुना
अतीन्द्रियसुखनी कल्पना पण क््यांथी आवे? ज्ञानीए
चैतन्यना अतीन्द्रियसुखनो अपूर्व स्वाद चाख्यो छे.