Atmadharma magazine - Ank 379
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म : वैशाख : २५०१
(५) अपादान: आत्मा केवळज्ञानरूपे परिणम्यो त्यारे पूर्वनी अपूर्ण
(६) अधिकरण: केवळज्ञान कोना आधारे थाय? शुं वज्र शरीरना आधारे के
आ रीते, शुद्धोपयोगना प्रसादथी जे केवळज्ञान प्रगट थयुं तेमां स्वतंत्रपणे
आचार्यदेव कहे छे के अहो जीवो! आत्माना आवा ‘स्वयंभू’ स्वभावने तमे
जाणो. बधाय आत्मा आवा ‘स्वयंभू’ स्वभाववाळा छे. पोतानुं केवळज्ञानादि कार्य
करवा माटे आत्माने परनी साथे कारकपणानो जराय संबंध नथी. आवा
स्वाधीनस्वभावने जाणे तो शुद्धात्मस्वभावनी प्राप्ति माटे (एटले सम्यग्दर्शनथी
मांडीने केवळज्ञाननी प्राप्ति माटे) कोई पण बाह्यसाधननी ओशियाळ रहेती नथी.
स्वभावनी सन्मुख शुद्धोपयोग वडे ज शुद्धतानी प्राप्ति थाय छे. तेने बदले मोहथी
बाह्यसामग्री शोधवानी व्यग्रता करी करीने अज्ञानी जीवो दुःखी थाय छे, पोताना
शुद्धात्मस्वभावनी प्राप्ति परने आधीन मानी ते परतंत्रता छे, ने परतंत्रता ते दुःख