: १६ : आत्मधर्म : वैशाख : २५०१
तारा अतीन्द्रिय–
– आनंदनुं धाम
(वीस वर्ष पहेलांंनी वैशाख सुद एकमनुं प्रवचन: प्रवचनसार गा. २६)
श्री आचार्यभगवान आत्माना अतीन्द्रियआनंदमां झूली
रह्या छे......अतीन्द्रियआनंदमां झूलता ए संतोनी वाणीमां पण
अतीन्द्रियआनंद नीतरी रह्यो छे........
रे भाई! शुं तने एम नथी लागतुं के आत्मामां अंदर जोतां
शांतिनुं वेदन थाय छे ने बहारमां द्रष्टि करतां अशांति वेदाय छे!!
शांतिथी विचारतां तने एम ज देखाशे; माटे नक्की कर के शांतिनुं–
सुखनुं–आनंदनुं क्षेत्र मारामां ज छे, माराथी बहार क्यांय सुख–शांति
के आनंद नथी...नथी...ने नथी. बाह्य भावोनी अपेक्षा वगर एकली
परम शांतिना वेदनस्वरूप हुं पोते ज छुं–एम अनुभव कर.
(पू. गुरुदेव)
आत्मानो ज्ञानस्वभाव छे. जिनवर भगवानने ते ज्ञानस्वभाव पूरेपूरो खीली
जेटला क्षेत्रमां सुखनुं संवेदन थाय छे तेवडो ज आत्मा छे, अने ते आत्मा
जेवडुं ज ज्ञान छे. हवे जीव! जेटला क्षेत्रमां आनंदनुं वेदन थाय छे तेटला क्षेत्रमां ज तुं
छो, तारा क्षेत्रथी बहार तारो आनंद नथी. आत्माने पोताना असंख्य प्रदेशोमां ज
आनंदनुं वेदन थाय छे, ते आनंदनो विस्तार थईने कांई बहारमां फेलातो नथी, एटले
आत्माथी बहार कोई पदार्थोमां आनंद नथी, ने ते कोई पदार्थोना आश्रये