साथे एकांत सुख ज होय छे, ते ज्ञाननी साथे दुःख होतुं ज नथी. अने बीजुं–जेने
आवा सर्वज्ञनी ने ज्ञानस्वभावनी प्रतीत थई छे एवा साधकने पोताना स्वसंवेदनमां
आनंद छे,–सुख छे, तेथी पोताना स्वसंवेदनज्ञानथी ते नक्की करे छे के अहो! मारा
ज्ञान अने सुखनुं क्षेत्र मारा आत्मामां ज छे, मारो आत्मा ज ज्ञान अने सुखनुं धाम
छे; मारा ज्ञान अने सुख माटे बीजा कोई पदार्थनी अपेक्षा मने नथी, मारुं स्वक्षेत्र ज
स्वयं ज्ञान अने सुखस्वभावथी भरेलुं छे.
तारामां ज छे, ताराथी बहार क््यांय सुख–शांति के आनंद नथी....नथी...ने नथी.
बहारमां पर लक्षे तने जे आकुळता वेदाय छे ते आकुळतानुं (अशांतिनुं दुःखनुं) क्षेत्र
पण तारामां ज छे, कांई बहारथी ते आकुळता नथी आवती. तेम अंर्तमुख थईने
एकाग्र थतां अनाकुळ शांतिनुं–अतीन्द्रिय आनंदनुं जे वेदन थाय छे ते पण आत्माना
स्वक्षेत्रप्रमाणमां ज थाय छे, बहारथी ते आनंद नथी आवतो, तेम ज ते आनंदनो
विस्तार थईने आत्माथी बहार पण नीकळी जतो नथी. आ रीते आनंदना प्रमाणमां
आत्मा छे, ने आत्माना प्रमाणमां ज्ञान छे. केवळी भगवानने परिपूर्ण आनंद ने
परिपूर्ण ज्ञान छे ते पण पोतामां छे, तेनुं क्षेत्र बहार नथी. पहेलांं थोडुं ज्ञान ने थोडुं
सुख हतुं पछी केवळज्ञान थतां घणुं ज्ञान अने घणुं सुख थयुं माटे ते आत्माथी जराय
बहार नीकळी गयुं–एम नथी. स्वक्षेत्रमां ज परिपूर्ण ज्ञान अने सुखनी ताकात भरी
छे. अहो! पूर्णज्ञान ने पूर्ण आनंदनुं क्षेत्र अहीं मारा आत्माना असंख्य प्रदेशमां ज छे,
प्रदेशे प्रदेशे ज्ञान आनंद भर्यो छे, कोई प्रदेश ज्ञान–आनंद वगरनो खाली नथी;
अत्यारे (साधकदशामां) मने मारा ज्ञान के आनंदनुं वेदन मारा आत्मामां ज थाय छे,
तो आ ज्ञान ने आनंद वधीने ज्यां पूर्ण थया त्यां (–सर्वज्ञदशामां) पण ते ज्ञान ने
आनंद आत्मामां ज व्यापीने रहेला छे;–आम साधकने पोताना आनंदना
स्वसंवेदनपूर्वक सर्वज्ञनो निर्णय छे. जे जीव आत्माना ज्ञान–आनंदस्वभावनो आवो
निर्णय करे तेने पोतामां स्वभावना आश्रये अतीन्द्रिय आनंदनुं स्वसंवेदन थया विना
रहे नहि, ने तेने विकारथी पण भेद पडी जाय. साधकदशामां अल्प विकार होय छे, ते
विकारनुं अने ज्ञान–आनंदनुं एक ज क्षेत्र होवा