Atmadharma magazine - Ank 379
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: १८ : आत्मधर्म : वैशाख : २५०१
छतां ज्ञानीने पोताना वेदनमां बंनेनी भिन्नता थई गई छे; क्षेत्रथी भिन्नता न थाय,
पण वेदनना स्वादमां जुदा पडी गया छे. अंतरना स्वभावमां जोतां मने मारा आनंदनुं
वेदन थाय छे माटे मारो आत्मा ज मारा ज्ञान–आनंदनो आधार छे; ने
अंर्तस्वभावमां जोतां पुण्य–पाप वेदाता नथी माटे मारो आत्मा ते विकारनो आधार
नथी,–आम अंतरना स्वसंवेदनपूर्वकनुं भेदज्ञान ज्ञानीने वर्ते छे.
अज्ञानी कहे छे के बहारमां जोतां ज्ञान थाय छे ने बहारथी आनंद आवे छे,–
तेने अंतरना स्वभावना ज्ञान आनंदनो विश्वास नथी. ज्ञानी कहे छे के अंतरमां जोतां
मने मारा आनंदनुं वेदन थाय छे, ने ज्यां आनंदनुं वेदन थाय छे त्यां ज मारुं ज्ञान
छे. आनंद अने ज्ञानस्वभावथी एकाकार मारो आत्मा छे.
ज्यां आनंद त्यां आत्मा, अने ज्यां आत्मा त्यां ज्ञान;
आ रीते आनंदना न्याये ज्ञाननुं आत्मप्रदेशीपणुं ज छे. अहो! ज्ञाननुं
आत्मप्रदेशीपणुं समजावतां आचार्यदेवे आत्मानो आनंदस्वभाव पण बतावी दीधो,
आचार्यभगवान आत्माना अतीन्द्रिय आनंदमां झूली रह्या छे....अतीन्द्रिय आनंदमां
झूलता संतोनी वाणीमां पण अतीन्द्रिय–आनंद नीतरी रह्यो छे.
वंदन हो.....ए आनंदधाममां वसनारा संतोना चरणमां!
न दुःखबीजं शुभदर्शनक्षिप्तौ कदाचन क्षिप्रमपि प्ररोहति।
सदाप्यनुप्तं सुखबीजमुत्तमं कुदर्शने तद्विपरीतमिष्यते।।
अर्थात् सम्यग्दर्शन–भूमिका एवी सुंदर छे के तेना उपर कदाचित
दुःखनां बीज पडी जाय तोपण ते कदी ऊगता नथी,–बळी जाय छे. अने ते
भूमि पर उत्तम सुखनां बीज तो वगर वाव्ये पण सदाय ऊग्या ज करे छे.
ज्यारे मिथ्यादर्शननी वात तेनाथी विपरीत छे, अर्थात् मिथ्यात्वभूमिकामां
सुखनां बीज ऊगता नथी, ने दुःखनां बीज तो हंमेश उग्या करे छे.
आ रीते सम्यक्त्व ते सर्वसुखनुं बीज छे; ने मिथ्यात्व ते दुःखनुं
बीज छे; एम जाणीने सम्यक्त्वने सेवो ने मिथ्यात्वने छोडो.
(सागारधर्मामृत)