नजरे तरवरती होय! अहा, मारामां आवी प्रभुता!–तो हवे तेमां ज केम न ठरुं!
एकक्षण पण हवे दुःखमां केम रहुं! एम तेना अंतरमां एकदम चोंट लागी जाय.
अत्यारसुधी मारुं आवुं जिनस्वरूप होवा छतां में तेने न पीछान्युं, पण हवे तो मारे
आत्मकल्याणनो उत्तम अवसर आवी गयो छे.–आ अवसर चुकवानो नथी, हवे सदाने
माटे आ भवथी छूटीने आत्मामां ज विसामो लेवो छे, अने तेना शांत निर्विकल्परसनुं
ज पान करवुं छे. वाह! जुओ तो खरा, मुमुक्षुनी आत्मजिज्ञासा!!
ते
नवा आवे छे अने चाल्या जाय छे, मारो चैतन्यभाव तेनाथी जुदो छे, ते विभावरूप
कदी थयो ज नथी, विकल्पोना कोलाहलो शांत चैतन्यमां प्रवेशता नथी. जेम बरफमां
ज्यां जुओ त्यां शीतळता ज भरी छे तेम मारा चैतन्यमां पण ज्यां जोउं त्यां सुख–
आनंद–शांतिनी शीतळता ज वेदाय छे,–आम ते चैतन्यनुं स्वसंवेदन करीने सम्यग्द्रष्टि
थाय छे; चमकदार हीरो गमे त्यां हो पण तेनी किंमत तो एकसरखी ज छे, तेम
चैतन्यहीरो गमे ते शरीर वच्चे, संयोगो वच्चे के राग वच्चे हो–पण तेना
चैतन्यभावनी किंमत एकसरखी ज छे; चैतन्यभाव तो ते बधाथी छूटेछूटो चैतन्यभाव
ज रहे छे, ते अन्यथा थतो नथी, परभावथी लेपातो नथी.
झंपलावे छे ने मोहने तोडीने सम्यग्दर्शन पामी विजेता ‘जिन’ बनी जाय छे. भले
नानो–पण ते
लागे....मारे मारा शुद्धात्माना दर्शन करवा छे–ते एक ज लगनी होय; गुरुने पण
वारंवार आ ज प्रश्न पूछे ने आ ज वात सांभळे के मने आत्मप्राप्ति केम थाय! ‘बा’
थी विखुटा पेला बाळकने जेम ‘मारी बा....मारी बा’ ते एक ज रटण होय, ए सिवाय
बीजे क्यांय तेने चेन न पडे; तेनी नजर तेनी बाने ज शोधती होय....